भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन-भर तलाशियाँ हुईं / रामकुमार कृषक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकुमार कृषक |अनुवादक= |संग्रह=फ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:36, 10 फ़रवरी 2023 के समय का अवतरण

दिन - भर तलाशियाँ हुईं
अब आकर यह पता चला,
सोफ़ों पर पसरा है अन्धियारा
बिजली की बत्तियाँ जला !

कैसा यह गोलमाल कैसा यह याराना,
रात के उजाले में उजलाते छुप जाना;

आज कल्ल परसों से
दिवस मास बरसों से,
कायम है यही सिलसिला !

आँखों में धूल झोंक सुरमे की तारीफ़ें,
गद्दों की झाड़ - पोंछ
तकियों को तकलीफ़ें;

मोड़ माड़ मस्तानी
हर करवट शैतानी,
बेमानी ही रहा गिला !

माना यह चोर - दौर, माना सब मौसेरे,
एक दिन छँटेंगे ही उजियारे अन्धेरे;

और नहीं बातों से
हाथों से लातों से,
टूटेगा रात का क़िला !