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"दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
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आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में। | आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में। | ||
17:06, 24 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में।
मज़ा न आया साहब को बिरयानी खाने में।
जी भर खाओ लेकिन यूँ तो मत बर्बाद करो,
एक लहू की बूँद जली है हर एक दाने में।
पल भर के गुस्से में सारी बात बिगड़ जाती,
सदियाँ लग जाती हैं बिगड़ी बात बनाने में।
उनसे नज़रें टकराईं तो जो नुक़्सान हुआ,
आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में।
अपने हाथों वो देते हैं सुबह-ओ-शाम दवा,
क्या रक्खा है ‘सज्जन’ अब अच्छा हो जाने में।