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"कहे कौन उठ दोपहर हो गई / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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जगा सूर्य जब भी सहर हो गई।
 
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लगा वक़्त इतना उन्हें राह में,
दवा आते आते ज़हर हो गई।
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दवा आते-आते ज़हर हो गई।
  
 
बँधी एक चंचल नदी प्यार में,
 
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तो वो सीधी सादी नहर हो गई।
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समंदर के दिल ने सहा ज़लज़ला,
 
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तटों पर सुनामी कहर हो गई।
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सियासत कबूली जो मज़लूम ने,
 
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तो रोटी लँगोटी महर हो गई।  
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तो रोटी-लँगोटी महर हो गई।
 
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17:31, 24 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण

कहे कौन उठ दोपहर हो गई।
जगा सूर्य जब भी सहर हो गई।

लगा वक़्त इतना उन्हें राह में,
दवा आते-आते ज़हर हो गई।

बँधी एक चंचल नदी प्यार में,
तो वो सीधी-सादी नहर हो गई।

समंदर के दिल ने सहा ज़लज़ला,
तटों पर सुनामी क़हर हो गई।

सियासत कबूली जो मज़लूम ने,
तो रोटी-लँगोटी महर हो गई।