भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आहटें ऐसी मिलीं मेरे हृदय को / राहुल शिवाय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
 
चाहता तुमको बसाना
 
चाहता तुमको बसाना
 
और कुछ भाया कहाँ
 
और कुछ भाया कहाँ
 +
 
गूँजती झनकार के सपने सजाकर
 
गूँजती झनकार के सपने सजाकर
 
पायलों का स्वप्न बुनता ही रहा मैं
 
पायलों का स्वप्न बुनता ही रहा मैं
  
एक ठंडी आग फिर से
+
एक मद्धिम आग जलती
जल उठी मेरे जेह्न में
+
जा रही थी श्वास में  
सच कहूँ आनंद ही आनंद
+
मन-नदी की आस्था
था ऐसे दहन में  
+
जागी थी फिर से प्यास में  
 +
 
 
देह का कंचन तपाया जा रहा था
 
देह का कंचन तपाया जा रहा था
 
और कुंदन में बदलता ही रहा मैं
 
और कुंदन में बदलता ही रहा मैं
पंक्ति 28: पंक्ति 30:
 
मिट गया सारा परायापन
 
मिट गया सारा परायापन
 
हुईं खुशियाँ सगीं
 
हुईं खुशियाँ सगीं
 +
 
चाहतों के शीर्षकों का लेख बनकर
 
चाहतों के शीर्षकों का लेख बनकर
 
शिलालेखों सा उभरता ही रहा मैं
 
शिलालेखों सा उभरता ही रहा मैं
 
</poem>
 
</poem>

16:30, 21 मई 2024 के समय का अवतरण

आहटें ऐसी मिलीं मेरे हृदय को
कल समूची रात जगता ही रहा मैं

मन बहुत वीरान था
कोई पहुँच पाया कहाँ
चाहता तुमको बसाना
और कुछ भाया कहाँ

गूँजती झनकार के सपने सजाकर
पायलों का स्वप्न बुनता ही रहा मैं

एक मद्धिम आग जलती
जा रही थी श्वास में
मन-नदी की आस्था
जागी थी फिर से प्यास में

देह का कंचन तपाया जा रहा था
और कुंदन में बदलता ही रहा मैं

कल्पनायें प्राण पाकर
दृगों को धोने लगीं
मिट गया सारा परायापन
हुईं खुशियाँ सगीं

चाहतों के शीर्षकों का लेख बनकर
शिलालेखों सा उभरता ही रहा मैं