"म आत्महत्या गर्दिनँ / ज्योति जङ्गल" के अवतरणों में अंतर
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+ | कुनाकुना बगिरहेको बतासले | ||
+ | रगतका छिर्काहरू बोकी | ||
+ | हारेर जम्नेछ, | ||
+ | इन्द्रेणीका रङहरूमा | ||
+ | मात्रै एउटा रङ हुनेछ | ||
+ | मेरो रगतको, मेरो विघातको, | ||
+ | मलाई अनन्त समयसम्म | ||
+ | यी साधकहरू बचाउनु छ | ||
+ | यो ब्रम्हाण्डको सौन्दर्य | ||
+ | फगत जिउनुमा अडेको छ, | ||
+ | त्यसैले म आत्महत्या गर्दिनँ । | ||
+ | यी आँखाले | ||
+ | मलाई आमा चिनाएका छन्, | ||
+ | यात्रामा आजसम्म | ||
+ | यही जिन्दगी | ||
+ | कुद्दै उफ्रँदै लड्दै उठ्दै | ||
+ | हाँस्दै रुँदै | ||
+ | सँगसँगै त आएको छ, | ||
+ | यो नआएदेखि | ||
+ | तिम्रो सपनाको प्रचेष्टा | ||
+ | कहाँ जन्मन्थ्यो ? कहाँ मर्थ्यो ? | ||
+ | यो चेतन स्वर्ग | ||
+ | कुन अँध्यारोले भोग्थ्यो ? | ||
− | + | मृत्यु त | |
− | + | सामना गरेपछि डराउँछ, | |
− | + | या ऊ | |
− | + | मुक्तिको अनिवार्य द्वार हो | |
− | + | आफैँ खुल्छ, | |
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− | + | चिरेर चलिरहेको नशा | |
− | + | निचोरेर शिरस्थ गर्दन | |
− | + | निलेर बिषैलो जलन | |
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छि ! मृत्युको किन अपमान गर्नु ? | छि ! मृत्युको किन अपमान गर्नु ? | ||
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− | उसको श्रद्धेय आगमनसम्म | + | उसको श्रद्धेय आगमनसम्म |
− | यो सृष्टिको | + | यो सृष्टिको चाँदनी पिइरहन्छु म |
− | दागसमेत | + | दागसमेत औँसीसमेत ! |
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− | यो अतृप्ति नै अगाध न्यायिक छ, | + | यो अतृप्ति नै अगाध न्यायिक छ, |
− | म प्राणलाई अन्याय | + | म प्राणलाई अन्याय गर्दिनँ, |
− | म आत्महत्या | + | म आत्महत्या गर्दिनँ । |
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+ | '''[[मैं आत्महत्या नहीं करूंगी / ज्योति जङ्गल / सुमन पोखरेल|यहाँ क्लिक करके इस कविता का एक हिंदी अनुवाद पढ़ा जा सकता है।]] | ||
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10:09, 1 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण
आकाशलाई जितेर
कुनाकुना बगिरहेको बतासले
रगतका छिर्काहरू बोकी
हारेर जम्नेछ,
इन्द्रेणीका रङहरूमा
मात्रै एउटा रङ हुनेछ
मेरो रगतको, मेरो विघातको,
मलाई अनन्त समयसम्म
यी साधकहरू बचाउनु छ
यो ब्रम्हाण्डको सौन्दर्य
फगत जिउनुमा अडेको छ,
त्यसैले म आत्महत्या गर्दिनँ ।
यी आँखाले
मलाई आमा चिनाएका छन्,
यात्रामा आजसम्म
यही जिन्दगी
कुद्दै उफ्रँदै लड्दै उठ्दै
हाँस्दै रुँदै
सँगसँगै त आएको छ,
यो नआएदेखि
तिम्रो सपनाको प्रचेष्टा
कहाँ जन्मन्थ्यो ? कहाँ मर्थ्यो ?
यो चेतन स्वर्ग
कुन अँध्यारोले भोग्थ्यो ?
मृत्यु त
सामना गरेपछि डराउँछ,
या ऊ
मुक्तिको अनिवार्य द्वार हो
आफैँ खुल्छ,
चिरेर चलिरहेको नशा
निचोरेर शिरस्थ गर्दन
निलेर बिषैलो जलन
छि ! मृत्युको किन अपमान गर्नु ?
उसको श्रद्धेय आगमनसम्म
यो सृष्टिको चाँदनी पिइरहन्छु म
दागसमेत औँसीसमेत !
यो अतृप्ति नै अगाध न्यायिक छ,
म प्राणलाई अन्याय गर्दिनँ,
म आत्महत्या गर्दिनँ ।
०००
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यहाँ क्लिक करके इस कविता का एक हिंदी अनुवाद पढ़ा जा सकता है।