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"बेवतन / ज्योति जङ्गल / सुमन पोखरेल" के अवतरणों में अंतर

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अनचाहे हो
 
ना आओ सपनों मेरी आँखों में।
 
नजरें
 
मेरे वतन के क्षितिजों पे छुट गए हैं।
 
 
इस जगह कहीं न दिखनेवाला मैं
 
इस जगह कहीं न दिखनेवाला मैं
 
एक खोया हुआ ठिकाना भर हूँ।
 
एक खोया हुआ ठिकाना भर हूँ।
  
टूटा हुआ हूँ
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टूटा हुआ हूँ,
खुद का पलाबढा पेड़ को वहीँ कहीँ छोड़कर।
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खुद का पलाबढ़ा पेड़ को वहीं कहीं छोड़कर।
पत्तोँ पे रख अपना वजूद को
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पत्तों पर रखकर अपना वजूद को  
यूँ ही कहीँ गिर गया हूँ
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यूँ ही कहीं गिर गया हूँ,
एक बूढ़े पत्ते की तरह
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एक बूढ़े पत्ते की तरह,
ज़र्द सन्तुष्टि लेकर
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ज़र्द संतोष लेकर
या फिर सब्ज जिन्दगी गुजरकर।
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या फिर हरी ज़िंदगी गुज़ारकर।
  
नि:स्वाद को उत्कर्ष तक जीता हूँ हर लम्हा
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नि:स्वाद को उत्कर्ष तक जीता हूँ हर लम्हा,
 
अतीत ऐसे काटता है कि हर कदम मरते हुए चलता हूँ।
 
अतीत ऐसे काटता है कि हर कदम मरते हुए चलता हूँ।
कितने ही बरस बीत जाए लेकिन
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सरहद पार की यह मिट्टी नहीं अपनाती मुझे।
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सरहद पार की यह मिट्टी मुझे अपनाती नहीं।
कडवी लगती है मुझे इस आसमाँ की नीलिमा भी।
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कड़वी लगती है मुझे इस आसमान की नीलिमा भी,
और बढती ही चली है मेरी प्यास  
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इस बेगाने शिविर के पानी से।
 
इस बेगाने शिविर के पानी से।
  
न सता मुझे ए!मुजरिम तसल्ली!
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न सता मुझे ए! मुजरिम तसल्ली!
कि मुझे अपने वतन के ही किसी हवालात में  
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कैद होना था।
 
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पनाह के इस कारागार में
 
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बेवजुद मुस्कुराया हुआ मेरा परिचय
 
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वैसे तो अब भी मैं
 
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जिया ही कहाँ हूँ?
 
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'''[[देशबिना / ज्योति जङ्गल|यहाँ क्लिक गरेर यस कविताको मूल नेपाली पढ्न सकिनेछ ।]]
 
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10:23, 1 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

अनचाहे हो, ना आओ सपनों मेरी आँखों में। नजरें मेरे वतन के क्षितिजों पर छूट गई हैं।

इस जगह कहीं न दिखनेवाला मैं
एक खोया हुआ ठिकाना भर हूँ।

टूटा हुआ हूँ,
खुद का पलाबढ़ा पेड़ को वहीं कहीं छोड़कर।
पत्तों पर रखकर अपना वजूद को
यूँ ही कहीं गिर गया हूँ,
एक बूढ़े पत्ते की तरह,
ज़र्द संतोष लेकर
या फिर हरी ज़िंदगी गुज़ारकर।

नि:स्वाद को उत्कर्ष तक जीता हूँ हर लम्हा,
अतीत ऐसे काटता है कि हर कदम मरते हुए चलता हूँ।
कितने ही बरस बीत जाएँ लेकिन
सरहद पार की यह मिट्टी मुझे अपनाती नहीं।
कड़वी लगती है मुझे इस आसमान की नीलिमा भी,
और बढ़ती ही चली है मेरी प्यास
इस बेगाने शिविर के पानी से।

न सता मुझे ए! मुजरिम तसल्ली!
कि मुझे अपने वतन के ही किसी हवालात में
कैद होना था।
पनाह के इस कारागार में
बेवजुद मुस्कुराया हुआ मेरा परिचय
मेरी लाश तक आ पहुँचेगा ज़रूर।

वैसे तो अब भी मैं
जिया ही कहाँ हूँ?
०००


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यहाँ क्लिक गरेर यस कविताको मूल नेपाली पढ्न सकिनेछ ।