भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिल का जख्म / कृष्णभूषण बल / सुमन पोखरेल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
किस हवा ने उडाया इस तरह
+
किस हवा ने उड़ाया इस तरह
कि सूखे पत्तों की तरह पानी पे तैर रहा हूँ।
+
कि सूखे पत्तों की तरह पानी पर तैर रहा हूँ।
जल्दबाज़ी का किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह  
+
जल्दबाज़ी के किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह
 
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ।
 
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ।
  
 
छोटी-सी लहर भी बहा सकती है मुझे
 
छोटी-सी लहर भी बहा सकती है मुझे
कोई जाल चाहिए ही नहीं !
+
कोई जाल चाहिए ही नहीं!
जो भी लगा सकेगा गर्दन पे काँटे मुझे
+
जो भी लगा सकेगा गर्दन पर कांटे मुझे
जाल चाहिए ही नहीं !
+
जाल चाहिए ही नहीं!
फिर भी साजिशों के काले हाथ  
+
फिर भी साजिशों के काले हाथ
 
गर्दन मरोड़ने के लिए तैनात किए हुए हैं
 
गर्दन मरोड़ने के लिए तैनात किए हुए हैं
 
फिर भी उन सभी का पहाड़ बना के सुरंग खोदने के लिए
 
फिर भी उन सभी का पहाड़ बना के सुरंग खोदने के लिए
कुछ नज़रें उठी हुई हैं।
+
कुछ नजरें उठी हुई हैं।
  
किस वसन्त पे पतझड़ बुलाकर  
+
किस वसंत पे पतझड़ बुलाकर
मुरझाए होंगे वे मेरे निर्दोष फूल  
+
मुरझाए होंगे वे मेरे निर्दोष फूल
किस राह को भूल कर  
+
किस राह को भूल कर
चले होंगे वे मेरी उदास नज़रे !
+
चले होंगे वे मेरी उदास नजरें!
  
 
जाने, और कितने दिन परदेश में जीना होगा इस तरह
 
जाने, और कितने दिन परदेश में जीना होगा इस तरह
पहाड़ से गिरा हुआ पत्थर ही होने पे भी
+
पहाड़ से गिरा हुआ पत्थर ही होने पर भी
 
कहीं रुकने की कोई जगह होती शायद।
 
कहीं रुकने की कोई जगह होती शायद।
  
दिल ही तो है इन्सान का,  
+
दिल ही तो है इंसान का,
 
नाजुक है
 
नाजुक है
इसे अब कहाँ ले जा कर रखना होगा ?
+
इसे अब कहाँ ले जाकर रखना होगा?
 +
 
 +
 
 
</poem>
 
</poem>

16:02, 1 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

किस हवा ने उड़ाया इस तरह
कि सूखे पत्तों की तरह पानी पर तैर रहा हूँ।
जल्दबाज़ी के किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ।

छोटी-सी लहर भी बहा सकती है मुझे
कोई जाल चाहिए ही नहीं!
जो भी लगा सकेगा गर्दन पर कांटे मुझे
जाल चाहिए ही नहीं!
फिर भी साजिशों के काले हाथ
गर्दन मरोड़ने के लिए तैनात किए हुए हैं
फिर भी उन सभी का पहाड़ बना के सुरंग खोदने के लिए
कुछ नजरें उठी हुई हैं।

किस वसंत पे पतझड़ बुलाकर
मुरझाए होंगे वे मेरे निर्दोष फूल
किस राह को भूल कर
चले होंगे वे मेरी उदास नजरें!

जाने, और कितने दिन परदेश में जीना होगा इस तरह
पहाड़ से गिरा हुआ पत्थर ही होने पर भी
कहीं रुकने की कोई जगह होती शायद।

दिल ही तो है इंसान का,
नाजुक है
इसे अब कहाँ ले जाकर रखना होगा?