भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पटकथा / पृष्ठ 2 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल }} भीड़ बढ़ती रही।<br> चौराहे चौड़े होते रहे।<br> लोग...)
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=धूमिल
 
|रचनाकार=धूमिल
 
}}  
 
}}  
 
+
{{KKPageNavigation
भीड़ बढ़ती रही।<br>
+
|पीछे=पटकथा / पृष्ठ 1 / धूमिल
चौराहे चौड़े होते रहे।<br>
+
|आगे=पटकथा / पृष्ठ 3 / धूमिल
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज<br>
+
|सारणी=पटकथा / धूमिल
खाकर-निरापद भाव से<br>
+
}}
बच्चे जनते रहे।<br>
+
<poem>
योजनायेँ चलती रहीं<br>
+
भीड़ बढ़ती रही
बन्दूकों के कारखानों में<br>
+
चौराहे चौड़े होते रहे
जूते बनते रहे।<br>
+
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
और जब कभी मौसम उतार पर<br>
+
खाकर-निरापद भाव से
होता था। हमारा संशय<br>
+
बच्चे जनते रहे।
हमें कोंचता था। हम उत्तेजित होकर<br>
+
योजनाएँ चलती रहीं
पूछते थे -यह क्या है?<br>
+
बन्दूकों के कारखानों में
ऐसा क्यों है?<br>
+
जूते बनते रहे।
फिर बहसें होतीं थीं<br>
+
और जब कभी मौसम उतार पर
शब्दों के जंगल में<br>
+
होता था हमारा संशय
हम एक-दूसरे को काटते थे<br>
+
हमें कोंचता था।  
भाषा की खाई को<br>
+
हम उत्तेजित होकर
जुबान से कम जूतों से<br>
+
पूछते थे - यह क्या है?
ज्यादा पाटते थे<br>
+
ऐसा क्यों है?
कभी वह हारता रहा…<br>
+
फिर बहसें होतीं थीं
कभी हम जीतते रहे…<br>
+
शब्दों के जंगल में
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही<br>
+
हम एक-दूसरे को काटते थे
दिन बीतते रहे…<br>
+
भाषा की खाई को
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।<br>
+
ज़ुबान से कम जूतों से
मेरा सारा धीरज<br>
+
ज़्यादा पाटते थे
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में<br>
+
कभी वह हारता रहा…
बह गया।<br>
+
कभी हम जीतते रहे…
मैंने देखा कि मैदानों में<br>
+
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
नदियों की जगह<br>
+
दिन बीतते रहे…
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं<br>
+
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं<br>
+
मेरा सारा धीरज
दूर-दूर तक<br>
+
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
कोई मौसम नहीं है<br>
+
बह गया।
लोग-<br>
+
मैंने देखा कि मैदानों में
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं<br>
+
नदियों की जगह
और बाहर मुर्दे पड़े हैं<br>
+
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं<br>
+
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
सधवायें मंगल गा रहीं हैं<br>
+
दूर-दूर तक
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ<br>
+
कोई मौसम नहीं है
अकाल का लंगर चला रही हैं<br>
+
लोग-
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-<br>
+
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना<br>
+
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
सख्त मना है।’<br>
+
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
फिर भी उस उजाड़ में<br>
+
सधवाएँ  मंगल गा रहीं हैं
कहीं-कहीं घास का हरा कोना<br>
+
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
कितना डरावना है<br>
+
अकाल का लंगर चला रही हैं
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का<br>
+
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ<br>
+
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है<br>
+
सख्त मना है।’
अखबार के मटमैले हासिये पर<br>
+
फिर भी उस उजाड़ में
लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का<br>
+
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
शांतिवाद ,नाम है<br>
+
कितना डरावना है
यह मेरा देश है…<br>
+
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
यह मेरा देश है…<br>
+
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक<br>
+
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
फैला हुआ<br>
+
अखबार के मटमैले हासिये पर
जली हुई मिट्टी का ढेर है<br>
+
लेटे हुए, एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-<br>
+
शांतिवाद, नाम है
नफ़रत है।<br>
+
यह मेरा देश है…
साज़िश है।<br>
+
यह मेरा देश है…
अन्धेर है।<br>
+
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
यह मेरा देश है<br>
+
फैला हुआ
और यह मेरे देश की जनता है<br>
+
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जनता क्या है?<br>
+
जहाँ हर तीसरी ज़ुबान का मतलब-
एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:<br>
+
नफ़रत है।
कुहरा,कीचड़ और कांच से<br>
+
साज़िश है।
बना हुआ…<br>
+
अन्धेर है।
एक भेड़ है<br>
+
यह मेरा देश है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये<br>
+
और यह मेरे देश की जनता है
अपनी पीठ पर<br>
+
जनता क्या है?
ऊन की फसल ढो रही है।<br>
+
एक शब्द… सिर्फ एक शब्द है:
एक पेड़ है<br>
+
कुहरा, कीचड़ और कांच से
जो ढलान पर<br>
+
बना हुआ…
हर आती-जाती हवा की जुबान में<br>
+
एक भेड़ है
हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है<br>
+
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
क्योंकि अपनी हरियाली से<br>
+
अपनी पीठ पर
डरता है।<br>
+
ऊन की फसल ढो रही है।
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर<br>
+
एक पेड़ है
शहर के शिवालों तक फैली हुई<br>
+
जो ढलान पर
‘कथाकलि’ की अंमूर्त मुद्रा है<br>
+
हर आती-जाती हवा की जुबान में
यह जनता…<br>
+
हाँऽऽ हाँऽऽ करता है
उसकी श्रद्धा अटूट है<br>
+
क्योंकि अपनी हरियाली से
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ<br>
+
डरता है।
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें<br>
+
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
घोड़े और घास को<br>
+
शहर के शिवालों तक फैली हुई
एक-जैसी छूट है<br>
+
‘कथाकलि’ की अमूर्त मुद्रा है
कैसी विडम्बना है<br>
+
यह जनता…
कैसा झूठ है<br>
+
उसकी श्रद्धा अटूट है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र<br>
+
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
एक ऐसा तमाशा है<br>
+
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
जिसकी जान<br>
+
घोड़े और घास को
मदारी की भाषा है।<br>
+
एक-जैसी छूट है
हर तरफ धुआँ है<br>
+
कैसी विडम्बना है
हर तरफ कुहासा है<br>
+
कैसा झूठ है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है<br>
+
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
वही देशभक्त है<br>
+
एक ऐसा तमाशा है
अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-<br>
+
जिसकी जान
तटस्थता। यहाँ<br>
+
मदारी की भाषा है।
कायरता के चेहरे पर<br>
+
हर तरफ धुआँ है
सबसे ज्यादा रक्त है।<br>
+
हर तरफ कुहासा है
जिसके पास थाली है<br>
+
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
हर भूखा आदमी<br>
+
वही देशभक्त है
उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है<br>
+
अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-
हर तरफ कुआँ है<br>
+
तटस्थता।  
हर तरफ खाई है<br>
+
यहाँ
यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है<br>
+
कायरता के चेहरे पर
जो या तो मूर्ख है<br>
+
सबसे ज्यादा रक्त है।
या फिर गरीब है
+
जिसके पास थाली है
 +
हर भूखा आदमी
 +
उसके लिये, सबसे भद्दी गाली है
 +
हर तरफ कुआँ है
 +
हर तरफ खाई है
 +
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
 +
जो या तो मूर्ख है
 +
या फिर गरीब है</poem>

11:48, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

भीड़ बढ़ती रही
चौराहे चौड़े होते रहे
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनाएँ चलती रहीं
बन्दूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम उतार पर
होता था हमारा संशय
हमें कोंचता था।
हम उत्तेजित होकर
पूछते थे - यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होतीं थीं
शब्दों के जंगल में
हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
ज़ुबान से कम जूतों से
ज़्यादा पाटते थे
कभी वह हारता रहा…
कभी हम जीतते रहे…
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे…
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग-
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवाएँ मंगल गा रहीं हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
सख्त मना है।’
फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हासिये पर
लेटे हुए, एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद, नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी ज़ुबान का मतलब-
नफ़रत है।
साज़िश है।
अन्धेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द… सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा, कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथाकलि’ की अमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता।
यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये, सबसे भद्दी गाली है
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है