भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पटकथा / पृष्ठ 5 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल }} और सुनो! नफ़रत और रोशनी<br> सिर्फ़ उनके हिस्से क...)
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=धूमिल
 
|रचनाकार=धूमिल
 
}}  
 
}}  
 
+
{{KKPageNavigation
और सुनो! नफ़रत और रोशनी<br>
+
|पीछे=पटकथा / पृष्ठ 4 / धूमिल
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं<br>
+
|आगे=पटकथा / पृष्ठ 6 / धूमिल
जिसे जंगल के हाशिये पर<br>
+
|सारणी=पटकथा / धूमिल
जीने की तमीज है<br>
+
}}
इसलिये उठो और अपने भीतर<br>
+
<poem>
सोये हुए जंगल को<br>
+
और सुनो! नफ़रत और रोशनी
आवाज़ दो<br>
+
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं
उसे जगाओ और देखो-<br>
+
जिसे जंगल के हाशिये पर
कि तुम अकेले नहीं हो<br>
+
जीने की तमीज़ है
और न किसी के मुहताज हो<br>
+
इसलिये उठो और अपने भीतर
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं<br>
+
सोये हुए जंगल को
वहाँ चलो।उनका साथ दो<br>
+
आवाज़ दो
और इस तिलस्म का जादू उतारने में<br>
+
उसे जगाओ और देखो-
उनकी मदद करो और साबित करो<br>
+
कि तुम अकेले नहीं हो
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं<br>
+
और न किसी के मुहताज हो
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’<br>
+
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं
मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था<br>
+
वहाँ चलो।
एक के बाद दूसरा<br>
+
उनका साथ दो
दूसरे के बाद तीसरा<br>
+
और इस तिलस्म का जादू उतारने में
तीसरे के बाद चौथा<br>
+
उनकी मदद करो और साबित करो
चौथे के बाद पाँचवाँ…<br>
+
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प<br>
+
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’
चुन रहा था<br>
+
मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था<br>
+
एक के बाद दूसरा
क्योंकि मेरे पास<br>
+
दूसरे के बाद तीसरा
कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं<br>
+
तीसरे के बाद चौथा
जो मेरी सीमाएँ थीं<br>
+
चौथे के बाद पाँचवाँ…
यद्यपि यह सही है कि मैं<br>
+
यानि कि एक के बाद दूसरा विकल्प
कोई ठण्डा आदमी नहीं है<br>
+
चुन रहा था
मुझमें भी आग है-<br>
+
मगर मैं हिचक रहा था
मगर वह<br>
+
क्योंकि मेरे पास
भभककर बाहर नहीं आती<br>
+
कुल जमा थोड़ी सुविधाएँ थीं
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ<br>
+
जो मेरी सीमाएँ थीं
एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है<br>
+
यद्यपि यह सही है कि मैं
जो परिवर्तन तो चाहता है<br>
+
कोई ठण्डा आदमी नहीं है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता<br>
+
मुझमें भी आग है-
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता<br>
+
मगर वह
बनी रहे।<br>
+
भभककर बाहर नहीं आती
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे<br>
+
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
और विरोध में उठे हुये हाथ की<br>
+
एक ‘पूँजीवादी’ दिमाग है
मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात<br>
+
जो परिवर्तन तो चाहता है
फैलने की हद तक<br>
+
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
आते-आते रुक जाती है<br>
+
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
क्योंकि हर बार<br>
+
बनी रहे।
चन्द सुविधाओं के लालच के सामने<br>
+
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
अभियोग की भाषा चुक जाती है।<br>
+
और विरोध में उठे हुये हाथ की
मैं खुद को कुरेद रहा था<br>
+
मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात
अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को<br>
+
फैलने की हद तक
सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।<br>
+
आते-आते रुक जाती है
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर<br>
+
क्योंकि हर बार
जमी हुई काई और उगी हुई घास को<br>
+
चन्द सुविधाओं के लालच के सामने
खरोंच रहा था,नोंच रहा था<br>
+
अभियोग की भाषा चुक जाती है।
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये<br>
+
मैं खुद को कुरेद रहा था
मैंने आदमी के भीतर की मैल<br>
+
अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को
देख ली थी। मेरा सिर<br>
+
सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।
भिन्ना रहा था<br>
+
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
मेरा हृदय भारी था<br>
+
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं<br>
+
खरोंच रहा था, नोंच रहा था
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से<br>
+
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
थोड़ी देर के लिये<br>
+
मैंने आदमी के भीतर की मैल
बचना चाह रहा था<br>
+
देख ली थी। मेरा सिर
जो अपनी पैनी आँखों से<br>
+
भिन्ना रहा था
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन<br>
+
मेरा हृदय भारी था
थाह रहा था<br>
+
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
प्रस्तावित भीड़ में<br>
+
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
शरीक होने के लिये<br>
+
थोड़ी देर के लिये
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था<br>
+
बचना चाह रहा था
अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर<br>
+
जो अपनी पैनी आँखों से
खींच लिया और मैं<br>
+
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में<br>
+
थाह रहा था
ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये<br>
+
प्रस्तावित भीड़ में
धड़ाम से-<br>
+
शरीक होने के लिये
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर<br>
+
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
मत-पेटियों के<br>
+
अचानक, उसने मेरा हाथ पकड़कर
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा<br>
+
खींच लिया और मैं
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है<br>
+
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है<br>
+
ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये
सिर्फ एक शोर है<br>
+
धड़ाम से-
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं<br>
+
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …<br>
+
मत-पेटियों के
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…<br>
+
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…<br>
+
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…<br>
+
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…<br>
+
सिर्फ एक शोर है
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…<br>
+
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…<br>
+
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ<br>
+
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…
और अँधेरे में गाड़ दी है<br>
+
सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…
आंखों की रोशनी।<br>
+
वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…
सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है<br>
+
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में<br>
+
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…
मैंने देखा हर तरफ<br>
+
झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं<br>
+
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये<br>
+
और अँधेरे में गाड़ दी है
गुट से गुट टकरा रहे हैं<br>
+
आखों की रोशनी।
वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं<br>
+
सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं<br>
+
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं<br>
+
मैंने देखा हर तरफ
श्रीमान् किन्तु हैं<br>
+
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
मिस्टर परन्तु हैं<br>
+
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
कुछ रोगी हैं<br>
+
गुट से गुट टकरा रहे हैं
कुछ भोगी हैं<br>
+
वे एक-दूसरे से दाँत-किलकिल कर रहे हैं
कुछ हिंजड़े हैं<br>
+
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
कुछ रोगी हैं<br>
+
हर तरफ तरह-तरह के जन्तु हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं<br>
+
श्रीमान् किन्तु हैं
आँखों के अन्धे हैं<br>
+
मिस्टर परन्तु हैं
घर के कंगाल हैं<br>
+
कुछ रोगी हैं
गूँगे हैं<br>
+
कुछ भोगी हैं
बहरे हैं<br>
+
कुछ हिंजड़े हैं
उथले हैं,गहरे हैं।<br>
+
कुछ रोगी हैं
गिरते हुये लोग हैं<br>
+
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
अकड़ते हुये लोग हैं<br>
+
आँखों के अन्धे हैं
भागते हुये लोग हैं<br>
+
घर के कंगाल हैं
पकड़ते हुये लोग हैं<br>
+
गूँगे हैं
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं<br>
+
बहरे हैं
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे<br>
+
उथले हैं,गहरे हैं।
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में<br>
+
गिरते हुये लोग हैं
असंख्य रोग हैं<br>
+
अकड़ते हुये लोग हैं
और उनका एकमात्र इलाज-<br>
+
भागते हुये लोग हैं
 +
पकड़ते हुये लोग हैं
 +
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
 +
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
 +
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
 +
असंख्य रोग हैं
 +
और उनका एकमात्र इलाज-
 
चुनाव है।
 
चुनाव है।
 +
</poem>

11:56, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

 
और सुनो! नफ़रत और रोशनी
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं
जिसे जंगल के हाशिये पर
जीने की तमीज़ है
इसलिये उठो और अपने भीतर
सोये हुए जंगल को
आवाज़ दो
उसे जगाओ और देखो-
कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं
वहाँ चलो।
उनका साथ दो
और इस तिलस्म का जादू उतारने में
उनकी मदद करो और साबित करो
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’
मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था
एक के बाद दूसरा
दूसरे के बाद तीसरा
तीसरे के बाद चौथा
चौथे के बाद पाँचवाँ…
यानि कि एक के बाद दूसरा विकल्प
चुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था
क्योंकि मेरे पास
कुल जमा थोड़ी सुविधाएँ थीं
जो मेरी सीमाएँ थीं
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठण्डा आदमी नहीं है
मुझमें भी आग है-
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
एक ‘पूँजीवादी’ दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
बनी रहे।
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
और विरोध में उठे हुये हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात
फैलने की हद तक
आते-आते रुक जाती है
क्योंकि हर बार
चन्द सुविधाओं के लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है।
मैं खुद को कुरेद रहा था
अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को
सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था, नोंच रहा था
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
मैंने आदमी के भीतर की मैल
देख ली थी। मेरा सिर
भिन्ना रहा था
मेरा हृदय भारी था
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
थोड़ी देर के लिये
बचना चाह रहा था
जो अपनी पैनी आँखों से
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
थाह रहा था
प्रस्तावित भीड़ में
शरीक होने के लिये
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
अचानक, उसने मेरा हाथ पकड़कर
खींच लिया और मैं
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में
ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये
धड़ाम से-
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
मत-पेटियों के
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
सिर्फ एक शोर है
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…
सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…
वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…
झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
और अँधेरे में गाड़ दी है
आखों की रोशनी।
सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
मैंने देखा हर तरफ
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
गुट से गुट टकरा रहे हैं
वे एक-दूसरे से दाँत-किलकिल कर रहे हैं
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
हर तरफ तरह-तरह के जन्तु हैं
श्रीमान् किन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं
कुछ रोगी हैं
कुछ भोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं
कुछ रोगी हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
आँखों के अन्धे हैं
घर के कंगाल हैं
गूँगे हैं
बहरे हैं
उथले हैं,गहरे हैं।
गिरते हुये लोग हैं
अकड़ते हुये लोग हैं
भागते हुये लोग हैं
पकड़ते हुये लोग हैं
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
असंख्य रोग हैं
और उनका एकमात्र इलाज-
चुनाव है।