भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हम ज़बाँ खोलते खोलते रह गये / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास' |अन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:30, 26 जनवरी 2025 के समय का अवतरण
हम जबाँ खोलते खोलते रह गये।
वो भी कुछ सोचते-सोचते रह गये।
तोड़कर सारे रिश्ते गये वह मगर,
हम ये दिल जोड़ते-जोड़ते रह गये।
हमने बढ़ती नदी पार की तैरकर,
वो मदद खोजते-खोजते रह गये।
जाने क्या याद आया उन्हें देखकर,
हम क़सम तोड़ते-तोड़ते रह गये।
आज कह देंगे दिल खोल हर बात हम,
जिसको वह पूछते-पूछते रह गये।
बज़्म में सज के वह सामने आये जब,
हम उन्हें देखते-देखते रह गये।
ख्वाब में उनकी ‘विश्वास’ तस्वीर हम,
रात कल चूमते-चूमते रह गये।