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"जलवा-ए-हुस्न तो जिगर तक है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

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जलवा-ए-हुस्न तो जिगर तक है
 
जलवा-ए-हुस्न तो जिगर तक है
 
हम तो समझे थे बस नज़र तक है
 
हम तो समझे थे बस नज़र तक है
  
इल्म-ओ-फ़न की नहीं है क़द्र यहाँ
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चाह बाक़ी नहीं उमीदों की
गोशाए - ज़ह्न के हुनर तक है  
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ज़िन्दगी बेसबब सहर तक है
  
फ़ख्र क्यों कर हो मुल्क पर अपने
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फिर मिलें हम, मिलें, मिलें न मिलें
सोच की हद भी अब सिफर तक है
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चाह बाक़ी नहीं उमीदों की
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ज़िन्दगी बेसबब सहर तक है
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फिर मिलें हम, मिलें, मिलें न मिलें  
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"साथ अपना तो बस सफ़र तक है"
 
"साथ अपना तो बस सफ़र तक है"
  
ग़ैब का इल्म कब था बाबर को  
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ग़ैब का इल्म कब था बाबर को
मुग़लिया सल्तनत जफ़र तक है  
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मुग़'लिया सल्तनत जफ़र तक है
  
कैसे मुफ़लिस ने ब्याह दी बेटी  
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कैसे मुफ़लिस ने ब्याह दी बेटी
किसको मालूम गिरवी घर तक है  
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किसको मालूम गिरवी घर तक है
  
 
शोर घर में बहुत है टी वी का
 
शोर घर में बहुत है टी वी का
बैठना फिर भी दर्दे-सर तक है  
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बैठना फिर भी दर्दे-सर तक है
  
घर को देखा जो आग की ज़द में  
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घर को देखा जो आग की ज़द में
सहमा आँगन का ये शजर तक है  
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सहमा आँगन का ये शजर तक है
  
उसका जलवा 'रक़ीब' है हरसू  
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उसका जलवा 'रक़ीब' है हरसू
 
यह न समझो फ़क़त क़मर तक है
 
यह न समझो फ़क़त क़मर तक है
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15:05, 30 जनवरी 2025 के समय का अवतरण

जलवा-ए-हुस्न तो जिगर तक है
हम तो समझे थे बस नज़र तक है

चाह बाक़ी नहीं उमीदों की
ज़िन्दगी बेसबब सहर तक है

फिर मिलें हम, मिलें, मिलें न मिलें
"साथ अपना तो बस सफ़र तक है"

ग़ैब का इल्म कब था बाबर को
मुग़'लिया सल्तनत जफ़र तक है

कैसे मुफ़लिस ने ब्याह दी बेटी
किसको मालूम गिरवी घर तक है

शोर घर में बहुत है टी वी का
बैठना फिर भी दर्दे-सर तक है

घर को देखा जो आग की ज़द में
सहमा आँगन का ये शजर तक है

उसका जलवा 'रक़ीब' है हरसू
यह न समझो फ़क़त क़मर तक है