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"प्रण / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

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मुनियों की हड्डी का एक पहाड़ बन गया,
 
मुनियों की हड्डी का एक पहाड़ बन गया,
विकट चक्र था,फँस करवीतराग मरते थे,
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विकट चक्र था, फँसकर वीतराग मरते थे,
शांत तपोवन बेचारों का भाड़ बन गया
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अनायास सामूहिक वध खिलवाड़ बन गया,
 
अनायास सामूहिक वध खिलवाड़ बन गया,
 
प्रभुता के मदमत्तों का । यह बात राम से
 
प्रभुता के मदमत्तों का । यह बात राम से
छिप न सकी, हिंसन कब तिल का ताड़ बन गया;
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छिप न सकी, हिंसा कब तिल का ताड़ बन गया;
 
"राक्षस जब तक नहीं जाएँगे । धरा धाम से
 
"राक्षस जब तक नहीं जाएँगे । धरा धाम से
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तब तक चैन न लूँगा"; अपने दिव्य नम से
 
तब तक चैन न लूँगा"; अपने दिव्य नम से
दक्षिण भुजा उठा कर यह प्रण किया और फिर
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दक्षिण भुजा उठाकर यह प्रण किया और फिर
 
लगे कार्यसाधन में, केवल इसी काम से
 
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तन मन जोड़ा, रहे इसी के हित स्थिर अस्थिर ।
 
तन मन जोड़ा, रहे इसी के हित स्थिर अस्थिर ।
  
महाकुंभ में हत निरीह प्राणों की पीड़ा
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महाकुम्भ में हत निरीह प्राणों की पीड़ा
कौन समझ कर बढ़ता है लेने को बीड़ा ।
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कौन समझकर बढ़ता है लेने को बीड़ा ।
 
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20:48, 12 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण

त्रेता में खरदूषण भी दावत करते थे,
मुनियों की हड्डी का एक पहाड़ बन गया,
विकट चक्र था, फँसकर वीतराग मरते थे,
शान्त तपोवन बेचारों का भाड़ बन गया

अनायास सामूहिक वध खिलवाड़ बन गया,
प्रभुता के मदमत्तों का । यह बात राम से
छिप न सकी, हिंसा कब तिल का ताड़ बन गया;
"राक्षस जब तक नहीं जाएँगे । धरा धाम से

तब तक चैन न लूँगा"; अपने दिव्य नम से
दक्षिण भुजा उठाकर यह प्रण किया और फिर
लगे कार्यसाधन में, केवल इसी काम से
तन मन जोड़ा, रहे इसी के हित स्थिर अस्थिर ।

महाकुम्भ में हत निरीह प्राणों की पीड़ा
कौन समझकर बढ़ता है लेने को बीड़ा ।