"एक औरत का अपने बारे में सोचना / गायत्रीबाला पंडा / राजेंद्र प्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गायत्रीबाला पंडा |अनुवादक=राजें...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=गायत्रीबाला पंडा | |रचनाकार=गायत्रीबाला पंडा | ||
− | |अनुवादक= | + | |अनुवादक=राजेन्द्र प्रसाद मिश्र |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | सोचती थी कि माँ से | + | सोचती थी कि माँ से पूछूँगी |
अपने जीवन में एक औरत | अपने जीवन में एक औरत | ||
− | अपने बारे में कब सोचती है! | + | अपने बारे में कब सोचती है ! |
− | मछली काटते-काटते | + | मछली काटते-काटते पँसुली से कते |
− | + | अँगूठे से बहने लगती है ख़ून की धार | |
वह सोचती, सुबह पहर | वह सोचती, सुबह पहर | ||
याद नहीं आया पति की शर्ट में | याद नहीं आया पति की शर्ट में | ||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
वह सोचती, बगीचे में | वह सोचती, बगीचे में | ||
सहजन के पेड़ में निकले नए फूलों | सहजन के पेड़ में निकले नए फूलों | ||
− | और अमृतदान में | + | और अमृतदान में फफून्दे |
बेर का अचार धूप में सूखने की बात. | बेर का अचार धूप में सूखने की बात. | ||
पंक्ति 27: | पंक्ति 27: | ||
ठाकुर-घर में, तुलसी चौरे पर | ठाकुर-घर में, तुलसी चौरे पर | ||
वह सोचती है रात को क्या पकाएगी | वह सोचती है रात को क्या पकाएगी | ||
− | जेठ की बेटी को दावत जो दी है मँगनी के | + | जेठ की बेटी को दावत जो दी है मँगनी के बादख । |
एक औरत कब | एक औरत कब | ||
अपने बारे में सोचती है | अपने बारे में सोचती है | ||
− | सोचती थी | + | सोचती थी पूछूँगी माँ से |
क्योंकि जब मैं कुँवारी थी | क्योंकि जब मैं कुँवारी थी | ||
सोचने को बहुत कुछ था मेरे पास | सोचने को बहुत कुछ था मेरे पास | ||
पंक्ति 38: | पंक्ति 38: | ||
त्वचा में चमक लाने के लिए | त्वचा में चमक लाने के लिए | ||
नई प्रसाधन सामग्री | नई प्रसाधन सामग्री | ||
− | इत्यादि के बारे में | + | इत्यादि के बारे में । |
तब नहीं जानती थी | तब नहीं जानती थी | ||
पंक्ति 45: | पंक्ति 45: | ||
जबकि दुनिया में | जबकि दुनिया में | ||
बहुत-सी बातें होती हैं | बहुत-सी बातें होती हैं | ||
− | सिर्फ़ अपने हीं बारे में जानने की | + | सिर्फ़ अपने हीं बारे में जानने की । |
निस्संग समय में पलक झपकने-सा है | निस्संग समय में पलक झपकने-सा है | ||
पंक्ति 53: | पंक्ति 53: | ||
उसके मुस्कुराते रहने का | उसके मुस्कुराते रहने का | ||
सर्वश्रेष्ठ निश्छल अभिनय | सर्वश्रेष्ठ निश्छल अभिनय | ||
− | अपने | + | अपने अन्दर अपनी उपस्थिति को |
− | पसीने की | + | पसीने की गन्ध सा |
ढोते रहे हैं | ढोते रहे हैं | ||
उसकी उम्र के गली-गलियारे | उसकी उम्र के गली-गलियारे | ||
पंक्ति 61: | पंक्ति 61: | ||
और मैं हो जाती हूँ चकनाचूर. | और मैं हो जाती हूँ चकनाचूर. | ||
− | और पूरी | + | और पूरी ज़िन्दगी में |
− | अगर एक भी | + | अगर एक भी बून्द आँसू बहाती है |
वह औरत | वह औरत | ||
किसी के देखने से पहले | किसी के देखने से पहले | ||
क्यों हड़बड़ाकर पोंछ लेती है उसे | क्यों हड़बड़ाकर पोंछ लेती है उसे | ||
− | सोचती थी, | + | सोचती थी, पूछूँगी माँ से ! |
+ | |||
+ | '''मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र''' |
20:44, 19 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण
सोचती थी कि माँ से पूछूँगी
अपने जीवन में एक औरत
अपने बारे में कब सोचती है !
मछली काटते-काटते पँसुली से कते
अँगूठे से बहने लगती है ख़ून की धार
वह सोचती, सुबह पहर
याद नहीं आया पति की शर्ट में
टूटा बटन लगाना
वह सोचती, बगीचे में
सहजन के पेड़ में निकले नए फूलों
और अमृतदान में फफून्दे
बेर का अचार धूप में सूखने की बात.
साँझ ढलने पर वह हड़बड़ाने लगती है
छत पर धूप में सूखती बड़ियाँ
लाकर नीचे कमरे में रखने को
साँझ बीत जाने के भय से
बाती सजाती है
ठाकुर-घर में, तुलसी चौरे पर
वह सोचती है रात को क्या पकाएगी
जेठ की बेटी को दावत जो दी है मँगनी के बादख ।
एक औरत कब
अपने बारे में सोचती है
सोचती थी पूछूँगी माँ से
क्योंकि जब मैं कुँवारी थी
सोचने को बहुत कुछ था मेरे पास
परीक्षा में आने वाले प्रश्न
झड़ते बालों की देख-भाल
त्वचा में चमक लाने के लिए
नई प्रसाधन सामग्री
इत्यादि के बारे में ।
तब नहीं जानती थी
एक औरत क्यों नहीं सोच सकती है
अपने बारे में कभी
जबकि दुनिया में
बहुत-सी बातें होती हैं
सिर्फ़ अपने हीं बारे में जानने की ।
निस्संग समय में पलक झपकने-सा है
मेरा वर्तमान
तमाम वर्तमान की उसाँसों में है
मेरी माँ, वही औरत
उसके मुस्कुराते रहने का
सर्वश्रेष्ठ निश्छल अभिनय
अपने अन्दर अपनी उपस्थिति को
पसीने की गन्ध सा
ढोते रहे हैं
उसकी उम्र के गली-गलियारे
जहाँ से टकराकर लौट आती है
मेरी सारी भावनाएँ
और मैं हो जाती हूँ चकनाचूर.
और पूरी ज़िन्दगी में
अगर एक भी बून्द आँसू बहाती है
वह औरत
किसी के देखने से पहले
क्यों हड़बड़ाकर पोंछ लेती है उसे
सोचती थी, पूछूँगी माँ से !
मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र