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"अँगूठा छाप / गायत्रीबाला पंडा / शंकरलाल पुरोहित" के अवतरणों में अंतर

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नक्सल की गोली से मृत पति को
 
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कितने मिले हर्जाने के
 
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कागजों में स्वीकारोक्ति पाँच लाख प्राप्ति
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ले चुकी सरकार।
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अँगूठे से छूट रहा स्याही का रंग
 
अँगूठे से छूट रहा स्याही का रंग
 
बस्ते से चावल
 
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पड़ोसी के मन से संवेदना
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पड़ोसी के मन से सम्वेदना
बच्चों के खाली पेट में
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बच्चों के ख़ाली पेट में
 
नाचते भूख के सियार
 
नाचते भूख के सियार
लंबे केंचुवे दुर्दशा के
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लम्बे केंचुए दुर्दशा के
 
चला रहे संसार
 
चला रहे संसार
स्वच्छ रहे सरकार।
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स्वच्छ रहे सरकार ।
  
 
सचिवालय में, थाने-कचहरी में
 
सचिवालय में, थाने-कचहरी में
 
मूक और निर्वेद पड़े लाखों अँगूठे के निशान
 
मूक और निर्वेद पड़े लाखों अँगूठे के निशान
किस जमाने के खोए नाम
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किस ज़माने के खोए नाम
 
जब बिसूर-बिसूर रोते,
 
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मुझे लगता कभी मैं भी
 
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ढीरा लगा बैठती,
 
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सुनती उनका मर्मभेदी हाहाकार,
 
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विकल चीख-पुकार,
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प्रश्न पर प्रश्न बन जाती मैं,
 
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वे उत्तर
 
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कोलाहल में भर जाता हाट-बाट
 
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रोम रोम जाग उठते, समय के।
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हर अँगूठे की छाप से उठ आते
 
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सलिला मरांडी, दुखी नायक
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सलिला मराण्डी, दुखी नायक
डंबरु तांड़ी, गजानन आचार्य
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डम्बरु तांड़ी, गजानन आचार्य
कहते जोर जबरदस्त
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कहते ज़ोर-ज़बरदस्ती से
 
हम से लिए गए हैं अँगूठे के निशान
 
हम से लिए गए हैं अँगूठे के निशान
 
हमें लौटा दो
 
हमें लौटा दो
 
हमारा मैला और बेतरतीब भाग्य
 
हमारा मैला और बेतरतीब भाग्य
हम मृत नहीं, हम जीवित
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हम मृत नहीं, हम जीवित हैं
हम मृत नहीं, हम जीवित!!
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हम मृत नहीं, हम जीवित हैं !!
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'''मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित'''
 
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20:51, 19 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण

आँख की पलकों में दबे
मर्मांतक कोह में से निकलता
काकुस्थ और विचलित,
नहीं जानती
नक्सल की गोली से मृत पति को
कितने मिले हर्जाने के
कागज़ों में स्वीकारोक्ति पाँच लाख प्राप्ति
ले चुकी सरकार ।

अँगूठे से छूट रहा स्याही का रंग
बस्ते से चावल
पड़ोसी के मन से सम्वेदना
बच्चों के ख़ाली पेट में
नाचते भूख के सियार
लम्बे केंचुए दुर्दशा के
चला रहे संसार
स्वच्छ रहे सरकार ।

सचिवालय में, थाने-कचहरी में
मूक और निर्वेद पड़े लाखों अँगूठे के निशान
किस ज़माने के खोए नाम
जब बिसूर-बिसूर रोते,
मुझे लगता कभी मैं भी
उनकी आँख की निरीहता में
ढीरा लगा बैठती,
सुनती उनका मर्मभेदी हाहाकार,
विकल ची्ख़-पुकार,
प्रश्न पर प्रश्न बन जाती मैं,
वे उत्तर
कोलाहल में भर जाता हाट-बाट
रोम रोम जाग उठते, समय के ।

यह रुलाई बदल जाती
दुर्घर्ष और मुक्तिखोर
जीवंत और भयंकर साँप सारे
सहज ही मिथ्या प्रमाणित हो सकने के
चौंकानेवाले बयान।

हर अँगूठे की छाप से उठ आते
सलिला मराण्डी, दुखी नायक
डम्बरु तांड़ी, गजानन आचार्य
कहते ज़ोर-ज़बरदस्ती से
हम से लिए गए हैं अँगूठे के निशान
हमें लौटा दो
हमारा मैला और बेतरतीब भाग्य
हम मृत नहीं, हम जीवित हैं
हम मृत नहीं, हम जीवित हैं !!

मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित