भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शहर ये जले तो जले लोग चुप हैं / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatGhazal}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>
 
<poem>
जो रो नहीं सकता है वो गा भी नहीं सकता
+
शहर ये जले तो जले लोग चुप हैं
जो खो नहीं सकता है वो पा भी हीं सकता
+
धुआँ भी उठे तो उठे लोग चुप हैं
  
आँसू गिरे तो लोग राज़ जान जायेंगे
+
ज़रा सी नहीं फ़िक्र शायद किसी को
अपनों के दिए ज़ख़्म दिखा भी नहीं सकता
+
ख़ज़ाना लुटे तो लुटे लोग चुप हैं
  
जितना भी झूठ बोलना चाहे वो बोल ले
+
कहाँ होगा फिर पंछियों का बसेरा
फिर भी वो सही बात छुपा भी नहीं सकता
+
शज़र ये कटे तो कटे लोग चुप हैं
  
घनघोर कुहासे में जो लिपटा हुआ हो खुद
+
सभी को पड़ी है  यहाँ सिर्फ़ अपनी
सूरज वो सवेरा नया ला भी नहीं सकता
+
पड़ोसी मरे तो मरे लोग चुप हैं
  
ईमान से बढ़कर के नहीं है कोई दौलत
+
यहाँ लोग भगवान के हैं भरोसे
सोया ज़मीर कोई जगा भी नहीं सकता
+
जो सूखा पड़े तो पड़े लोग चुप हैं
  
मत भूलिए कि चाँद की कितनी है अहमियत
+
अलीगढ़ के ताले लगाकर के बैठे
तारों से कोई रात सजा भी नहीं सकता
+
भले पाप फूले फले लोग चुप हैं
  
पूरा हुआ जो वक़्त तो जाना ही पड़ेगा
+
न घर में दिये हैं, न बाहर मशालें
कोई हकीम, बैद बचा भी नहीं सकता
+
अँधेरा बढ़े तो बढ़े लोग चुप हैं
 
+
फूलों की अहमियत को यूँ दरकिनार कर
+
मुरझा गये तो उनको खिला भी नहीं सकता
+
 
</poem>
 
</poem>

21:52, 4 मार्च 2025 के समय का अवतरण

शहर ये जले तो जले लोग चुप हैं
धुआँ भी उठे तो उठे लोग चुप हैं

ज़रा सी नहीं फ़िक्र शायद किसी को
ख़ज़ाना लुटे तो लुटे लोग चुप हैं

कहाँ होगा फिर पंछियों का बसेरा
शज़र ये कटे तो कटे लोग चुप हैं

सभी को पड़ी है यहाँ सिर्फ़ अपनी
पड़ोसी मरे तो मरे लोग चुप हैं

यहाँ लोग भगवान के हैं भरोसे
जो सूखा पड़े तो पड़े लोग चुप हैं

अलीगढ़ के ताले लगाकर के बैठे
भले पाप फूले फले लोग चुप हैं

न घर में दिये हैं, न बाहर मशालें
अँधेरा बढ़े तो बढ़े लोग चुप हैं