भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज़हर जुबां में अपनी जमकर घोले निकलेंगे / अशोक अंजुम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक अंजुम |अनुवादक= |संग्रह=अशोक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:40, 9 मार्च 2025 के समय का अवतरण

ज़हर जुबां में अपनी जमकर घोले निकलेंगे
आस्तीन में पलकर और सपोले निकलेंगे

हमने दोस्त समझकर उनका तुहफ़ा किया कबूल
पता न था गुलदस्ते में बम-गोले निकलेंगे

इसे जिताओ, उसे जिताओ, सब इक जैसे हैं
राजनीति के खाली सारे झोले निकलेंगे

वे रस्ते जो मेहनतकश को मखमल लगते हैं
साहब जी के पांव में वहीं फफोले निकलेंगे

जिनके मुंह से मुश्किल से दो बोल निकलते हैं
बोतल खुलते ही वे सब बड़बोले निकलेंगे