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"जैसे किसी बाग़ी का झण्डा / नाज़िम हिक़मत / मनोज पटेल" के अवतरणों में अंतर
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रात नौ और दस के बीच लिखी गई कविताएँ - 4
(पत्नी पिराए के लिए)
04 दिसम्बर 1945
अपने वही कपड़े निकालो
जिन्हें पहने हुए थीं तब,
जब मुझसे मिली थीं पहली बार ।
सबसे सुन्दर नज़र आओ आज
वसन्त ऋतु के पेड़ों की तरह
अपने जूड़े में वह कारनेशन का फूल लगाओ
जो मैंने तुम्हें जेल से भेजा था एक चिट्ठी में ...।
ऊपर उठाओ अपना चूमने लायक, चौड़ा - गोरा माथा
आज कोई रंज नहीं, कोई उदासी नहीं —
कत्तई नहीं ! ...
आज नाज़िम हिकमत की बीवी को बहुत ख़ूबसूरत दिखना है
जैसे किसी बाग़ी का झण्डा ...!
अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल