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"रिक्तियों के बाण मन के पर कतर कर ले गये हैं / पुष्पराज यादव" के अवतरणों में अंतर
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रिक्तियों के बाण मन के पर कतर कर ले गये हैं l
मंजिलों की ओर बढ़ते
कारवाँ में एक थे हम,
वक्त के हाथों रचित
स्वर्णिम सरस आलेख थे हम l
कामना का एक पंछी छटपटाये जा रहा है,
कुछ शिकारे पंख जिसके नोंचकर हर ले गये हैं l
कोई तारा था गगन के
भाल पर यूँ जगमगाता,
कोई मोती था समंदर की
सतह में झिलमिलाता l
कोई आकर्षण उन्हें जब एक करने को बढ़ा तो,
बद-नियति के दंश दोनों की चमक हर ले गये हैं l
रह गये हैं मन के मरुथल
में तपनमय गर्म टीले,
गंध भरती घाटियों के
हो गये जब हाथ पीले l
रह गयी हैं नागफनियाँ आँचलों में बींधने को,
केसरों की क्यारियाँ, गुलशन सरोवर ले गये हैं l