भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कभी पहाड़ का रोना सुना गया ही नहीं / अभिषेक कुमार सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अभिषेक कुमार सिंह |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:43, 17 अप्रैल 2025 के समय का अवतरण
कभी पहाड़ का रोना सुना गया ही नहीं
किसी के पास हुनर ऐसा कोई था ही नहीं
तमाम कोशिशें नाकामियों की भेंट चढ़ीं
चमकती रेत के टीले से घर बना ही नहीं
हमारे ख़्वाब के जंगल तो जल गए लेकिन
दहकती आग से कोई धुआँ उठा ही नहीं
सहारा नाव का लेना ही पड़ा आख़िर में
नदी ने राहियों को रास्ता दिया ही नहीं
न जाने कौन से कस्बे में आ गये हैं हम
गलत क़दम पर कोई हमको टोकता ही नहीं
बना के घास की रोटी भी पेट भर लें पर
जलाने को यहाँ चूल्हे में कोयला ही नहीं
किसे मैं दोष दूँ अब और इस ज़माने में
जो मेरे साथ था मेरा कभी हुआ ही नहीं