भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कलई उतर गई हुआ नंगा समाजवाद / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह=सच कहना यूँ अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | कलई उतर गई हुआ नंगा समाजवाद | ||
+ | सोचा तो क्या था मैंने क्या निकला समाजवाद | ||
+ | टोपी बराबरी की तो पहना दिया सबको | ||
+ | पर जेब सिर्फ़ अपनी भर रहा समाजवाद | ||
+ | |||
+ | जनता रहे भूखी मज़े लें दावतों के आप | ||
+ | देखा सुना नहीं कभी ऐसा समाजवाद | ||
+ | |||
+ | लड़ने का दम नहीं तो कटोरा लिए हुए | ||
+ | पूँजीपती के द्वार पे पहुँचा समाजवाद | ||
+ | |||
+ | सपने दिखा रहा है वो बस सब्ज़बाग़ के | ||
+ | लेकिन है हक़ीक़त में दिखावा समाजवाद | ||
+ | |||
+ | |||
+ | नेता से मिलके मैंने राज जान लिया है | ||
+ | फंडा है राजभोग तो झंडा समाजवाद | ||
+ | |||
+ | दावे थे सभी खोखले , अब पोल खुल चुकी | ||
+ | देखा है छद्म से भरा झूठा समाजवाद | ||
</poem> | </poem> |
18:11, 3 मई 2025 के समय का अवतरण
कलई उतर गई हुआ नंगा समाजवाद
सोचा तो क्या था मैंने क्या निकला समाजवाद
टोपी बराबरी की तो पहना दिया सबको
पर जेब सिर्फ़ अपनी भर रहा समाजवाद
जनता रहे भूखी मज़े लें दावतों के आप
देखा सुना नहीं कभी ऐसा समाजवाद
लड़ने का दम नहीं तो कटोरा लिए हुए
पूँजीपती के द्वार पे पहुँचा समाजवाद
सपने दिखा रहा है वो बस सब्ज़बाग़ के
लेकिन है हक़ीक़त में दिखावा समाजवाद
नेता से मिलके मैंने राज जान लिया है
फंडा है राजभोग तो झंडा समाजवाद
दावे थे सभी खोखले , अब पोल खुल चुकी
देखा है छद्म से भरा झूठा समाजवाद