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"नहीं चलता हो अपना वश तो मुँह खोला नहीं जाता / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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कि जिन पेड़ों की  छाँवों के तले बचपन गुज़ारा था
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उन्हें कटते हुए, गिरते हुए देखा नहीं जाता
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हरे पेड़ों को उनको काटने पर दुख नहीं होता
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मगर हमसे तो सूखा पेड़ भी काटा नहीं जाता
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हरे पेड़ों का कटना जुर्म है, पाबंदियाँ भी हैं
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मगर  शासन करे वह जुर्म तो माना नहीं जाता
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सड़क चौड़ी कराओ शौक़ से, इसके लिए पर क्या
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हज़ारों पेड़ काटे जायेंगे सोचा नहीं जाता
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उठाता हूँ नज़र जिस ओर वीराना नज़र आता
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बयाबां में हसीं मंज़र कोई ढूँढा नहीं जाता
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न हो बरसात अच्छी और सावन भी रहे सूखा
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यक़ीनन फिर हमारा साल वो अच्छा नहीं जाता
 
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12:16, 4 मई 2025 के समय का अवतरण

नहीं चलता हो अपना वश तो मुँह खोला नहीं जाता
उमड़ता हो अगर ज़ज़्बात तो रोका नहीं जाता

कि जिन पेड़ों की छाँवों के तले बचपन गुज़ारा था
उन्हें कटते हुए, गिरते हुए देखा नहीं जाता

हरे पेड़ों को उनको काटने पर दुख नहीं होता
मगर हमसे तो सूखा पेड़ भी काटा नहीं जाता

हरे पेड़ों का कटना जुर्म है, पाबंदियाँ भी हैं
मगर शासन करे वह जुर्म तो माना नहीं जाता

सड़क चौड़ी कराओ शौक़ से, इसके लिए पर क्या
हज़ारों पेड़ काटे जायेंगे सोचा नहीं जाता

उठाता हूँ नज़र जिस ओर वीराना नज़र आता
बयाबां में हसीं मंज़र कोई ढूँढा नहीं जाता

न हो बरसात अच्छी और सावन भी रहे सूखा
यक़ीनन फिर हमारा साल वो अच्छा नहीं जाता