भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री / दिनकर कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
<Poem> | <Poem> | ||
− | एक | + | रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री |
− | + | रात भर | |
− | + | चांदनी का मैलापन | |
− | + | समाया रहता है मेरी आँखों में | |
− | + | सपने में वैशाख | |
− | + | भूपेन हजारिका का गायन | |
− | + | बन जाता है | |
− | + | गुलमोहर के पेड़ के नीचे | |
− | + | सुर्ख़ लाल रंग का लिबास पहनकर | |
− | + | चित्रलेखा किसी की राह देखती है | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
+ | रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री | ||
+ | रात भर | ||
+ | शहर का पथरीला सीना | ||
+ | शांत रहता है | ||
+ | बंद रहती हैं खिड़कियाँ | ||
+ | खाँसते नहीं हैं बुजुर्ग | ||
+ | झाँकती नहीं हैं चाचियाँ-दादियाँ | ||
+ | रात भर एक घने जंगल में | ||
+ | सिहरता रहता हूँ मैं | ||
</poem> | </poem> |
20:20, 27 नवम्बर 2008 का अवतरण
रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री
रात भर
चांदनी का मैलापन
समाया रहता है मेरी आँखों में
सपने में वैशाख
भूपेन हजारिका का गायन
बन जाता है
गुलमोहर के पेड़ के नीचे
सुर्ख़ लाल रंग का लिबास पहनकर
चित्रलेखा किसी की राह देखती है
रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री
रात भर
शहर का पथरीला सीना
शांत रहता है
बंद रहती हैं खिड़कियाँ
खाँसते नहीं हैं बुजुर्ग
झाँकती नहीं हैं चाचियाँ-दादियाँ
रात भर एक घने जंगल में
सिहरता रहता हूँ मैं