भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"इतना ही / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश मानस |संग्रह= }} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | दो मूँगफली | ||
+ | खेत की मिट्टी में धँसी | ||
+ | जैसे किसान ने आख़िरी हल चलाते | ||
+ | ज़मीन के लिए नहीं, मेरे लिए छोड़ दी हो। | ||
+ | मैं गिलहरी | ||
+ | पुआल की गठरियों के बीच- धूप के टुकड़े चुनती | ||
+ | क्या इतना ही चाहिए? | ||
+ | जीने को या जीने के अर्थ को? | ||
+ | खेतों की मेड़ पर | ||
+ | साँझ की छाया लंबी होती है | ||
+ | बरगद की जड़ें - ज़मीन को थामे | ||
+ | मुझसे कहती हैं - | ||
+ | थिरकना; लेकिन ठहरना भी। | ||
+ | मूँगफली का स्वाद - मिट्टी का | ||
+ | जैसे समय ने | ||
+ | खेतों में कुछ रख छोड़ा हो। | ||
+ | क्या यह धरती, किसान और मेरी छोटी-सी दौड़ | ||
+ | सब एक ही कविता हैं ? | ||
+ | |||
+ | इतना ही चाहिए - | ||
+ | दो मूँगफली | ||
+ | और खेत की हवा में | ||
+ | एक पल | ||
+ | जो न मेरा | ||
+ | न धरती का.... | ||
+ | बस है। | ||
+ | -0- | ||
</poem> | </poem> |
20:05, 8 जुलाई 2025 के समय का अवतरण
दो मूँगफली
खेत की मिट्टी में धँसी
जैसे किसान ने आख़िरी हल चलाते
ज़मीन के लिए नहीं, मेरे लिए छोड़ दी हो।
मैं गिलहरी
पुआल की गठरियों के बीच- धूप के टुकड़े चुनती
क्या इतना ही चाहिए?
जीने को या जीने के अर्थ को?
खेतों की मेड़ पर
साँझ की छाया लंबी होती है
बरगद की जड़ें - ज़मीन को थामे
मुझसे कहती हैं -
थिरकना; लेकिन ठहरना भी।
मूँगफली का स्वाद - मिट्टी का
जैसे समय ने
खेतों में कुछ रख छोड़ा हो।
क्या यह धरती, किसान और मेरी छोटी-सी दौड़
सब एक ही कविता हैं ?
इतना ही चाहिए -
दो मूँगफली
और खेत की हवा में
एक पल
जो न मेरा
न धरती का....
बस है।
-0-