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"द्वितीय अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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::त्यों विश्व के सब प्राणियों में ब्रह्म तत्व भी एक है।<br>
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::वह एक होकर भी अहो रखते अनेकों वेश हैं,<br>
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वह एक होकर भी अहो रखते अनेकों वेश हैं,<br>
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::अन्तः करण स्थित सभी के, आत्म भू अखिलेश हो।<br>
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अन्तः करण स्थित सभी के, आत्म भू अखिलेश हो।<br>
::इस आत्म स्थित परम प्रभु का, ज्ञान जिस ज्ञानी को हो,<br>
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इस आत्म स्थित परम प्रभु का, ज्ञान जिस ज्ञानी को हो,<br>
::उसे सुख सुलभ शाश्वत सनातन, अन्य को दुर्लभ अहो॥ [ १२ ]<br><br>
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आनंद सर्वोपरि अलौकिक, सुख परम परब्रह्म का,<br>
::यह वचन वाणी कैसे वर्णित, करे वर्जन ब्रह्म का।<br>
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यह वचन वाणी कैसे वर्णित, करे वर्जन ब्रह्म का।<br>
::प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष है या, मात्र अनुभव गम्य है,<br>
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::उसे ज्ञात ज्ञानी करे कैसे, गूढ़ अतिशय धन्य है॥ [ १४ ]<br><br>
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उसे ज्ञात ज्ञानी करे कैसे, गूढ़ अतिशय धन्य है॥ [ १४ ]<br><br>
 
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18:56, 5 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ ९ ॥

सब प्राणियों में एक प्रभु, सम भावना से व्याप्त है,
आधार के अनुरूप रूप में, व्याप्त है नहीं ज्ञात है।
ज्यों अग्नि एक तथापि उसके, प्रगट रूप अनेक हैं,
त्यों ब्रह्म एक है विविधता, दृष्टव्य जिनमें विवेक है॥ [ ९ ]

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ १० ॥

ज्यों एक वायु तथापि गति संयोग शक्ति अनेक हैं,
त्यों विश्व के सब प्राणियों में ब्रह्म तत्व भी एक है।
वह एक होकर भी अहो रखते अनेकों वेश हैं,
अन्तः प्रवाहित बाह्य भी अनभिज्ञ बहु परिवेश हैं॥ [ १० ]

सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुः
न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥ ११ ॥

यथा रवि को दर्शकों के दोष गुण नहीं लिप्यते,
तथा प्रभुवर प्राणियों के कर्म दोषों में न रते।
सबमें विराजित है तथापि पृथक और निर्लिप्त है,
उस दिव्य पुंज की दिव्य ज्योति से विश्व सारा प्रदीप्त है॥ [ ११ ]

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ १२ ॥

तुम एक होकर भी प्रभो, रखते अनेकों वेश हो,
अन्तः करण स्थित सभी के, आत्म भू अखिलेश हो।
इस आत्म स्थित परम प्रभु का, ज्ञान जिस ज्ञानी को हो,
उसे सुख सुलभ शाश्वत सनातन, अन्य को दुर्लभ अहो॥ [ १२ ]

नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम्
एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ १३ ॥

प्रभो नित्यों का भी नित्य चेतन, आत्मा की आत्मा,
जीवों के कर्मों का विधाता, एक है परमात्मा।
ज्ञानी सतत जो देखते, अन्तः विराजित जगपते,
वे ही सनातन शांति शाश्वत, पा सकेंगे सत्पते॥ [ १३ ]

तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्देश्यं परमं सुखम् ।
कथं नु तद्विजानीयां किमु भाति विभाति वा ॥ १४ ॥

आनंद सर्वोपरि अलौकिक, सुख परम परब्रह्म का,
यह वचन वाणी कैसे वर्णित, करे वर्जन ब्रह्म का।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष है या, मात्र अनुभव गम्य है,
उसे ज्ञात ज्ञानी करे कैसे, गूढ़ अतिशय धन्य है॥ [ १४ ]

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १५ ॥

न ही सूर्य चन्द्र न तारा गण, विद्युत प्रकाशित है वहाँ,
यह अग्नि लौकिक कैसे फ़िर होती प्रकाशित है यहाँ।
सबमें विराजित है तथापि पृथक और निर्लिप्त है,
अणु कण सकल ब्रह्माण्ड के तो दिव्य ज्योति प्रदीप्त हैं॥ [ १५ ]



इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये द्वितीया वल्ली ॥