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"मांडूक्योपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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ॐ श्री परमात्मने नमः
मांडूक्योपनिषद
शान्ति पाठ
हे देव गण ! कल्याण मय हम वचन कानों से सुनें,
कल्याण ही नेत्रों से देखें , सुदृढ़ अंग बली बनें।
आराधना स्तुति प्रभो की हम सदा करते रहे,
मम आयु देवों के काम आये , हम नमन करते रहे।
हे इन्द्र ! मम कल्याण को कल्याण का पोषण करें,
हे विश्व वेदाः ! पूषा श्री मय ज्ञान संवर्धन करें।
हे बृहस्पति ! हे अरिष्ट नेमिः , स्वस्ति कारक आप हैं,
सब त्रिविध ताप हों शांत जग के देते जो, संताप हैं।


यही ॐ ऐसा परम अक्षर , चरम अविनाशी महे,
विश्वानि जग उसकी महिमा ही महिमा, प्रकृति गरिमा का कहे.
आगत विगत ओंकार कालातीत जग का मूल है,
आद्यंत हीन, अचिन्त्य कारण , सूक्ष्म और स्थूल है॥ [ १ ]

विश्वानि जग सब ब्रह्म मय और ब्रह्म से परिपूर्ण है,
दृष्टव्य जो भी जगत में, सब ब्रह्म मय सम्पूर्ण है.
यह ब्रह्म, वेदों में कथित है कि चार पैरों वाला है,
सर्वात्मा ही तो ब्रह्म पर ब्रह्म विश्व धारण वाला है॥ [ २ ]

जाग्रत अवस्था की तरह, सब जगत प्रभु का शरीर है,
भूः , भुवः आदि लोक सप्तम अंग प्राण समीर हैं.
सब ज्ञान कर्मेन्द्रियाँ ह्रदय व् प्राण मुख है अगम्य का,
स्थूल भोक्ता , ज्ञाता धारक , पाद पहला ब्रह्म का॥ [ ३ ]

एक स्वप्नमय यह सूक्ष्म जग ही , जिसका वास निवास है,
संकल्प मय ऋत ज्ञान जिनका , सूक्ष्म जग आवास है.
सप्तांग उन्नीस , मुखों वाला , रूप बृहत अगम्य का,
आत्मा भू अखिलेश तेजस , द्वितीय पाद है ब्रह्म का॥ [ ४ ]

ज्यों सुप्त मानव , कामना व् स्वप्न हीन सुषुप्ति है,
इस सुषुप्तिवस्था सम ही प्रलय काल प्रवृति है.
विज्ञान मय , आनंद मय , शुभ ज्योति मुख है अगम्य का,
आनंद का एकमेव भोक्ता, तृतीय पाद है ब्रह्म का॥ [ ५ ]

विश्वानि विश्व का मूल कारण एक सर्वेश्वर अहे,
सर्वज्ञ, अन्तर्यामी , सबके प्राण धारक शुचि महे.
उत्पत्ति स्थित प्रलय मूल में, आत्म भू अखिलेश है,
अतः प्राज्ञ से वैश्वानर , सब रूप में सर्वेश है॥ [ ६ ]

प्रज्ञं, अप्रग्यं, बाह्य अन्तः, प्रज्ञहीन , अचिन्त्य है,
अदृश्य , अग्राह्यम, अव्यह्रुत , अद्वितीय तत्व व् नित्य है.
शुभ, शुचि, पंचातीत शांत है, मर्म अगम अगम्य का,
ज्ञातव्य प्रभु, अद्विति तत्व ही चौथा पाद है ब्रह्म का॥ [ ७ ]

'अ' 'उ' व 'म' ये तीनों मात्राएँ ही तीनों पाद हैं,
उनके तीनों पाद ॐ की मात्राएँ ब्रह्म नाद हैं.
परमात्मा इन तीनों मात्राओं से युक्त ओंकार है,
इनका समन्वय ही ब्रह्म की आराधना का प्रकार है॥ [ ८ ]

परिपूर्ण परमेश्वर का पहला पाद 'अ' ही आकार है,
यह शब्द व्यंजन, वर्ण , स्वर, जड़ तत्व ,जग का आकार है.
सम्यक जो जाने वैश्वानर, ऐसे अकार विराट की,
इच्छाएं पूर्ण प्रधान पायें , वह कृपा सम्राट की॥ [ ९ ]

ओंकार की मात्रा द्वितीय 'उ' उकार उत्कृष्ट है,
जो स्वप्न के सम सूक्ष्म है, यह उसका रूप विशिट है.
'उकार' ज्ञान की प्रथा उन्नत जो करे उस कुल में भी,
जानते हिरण्यगर्भ रूपी, ब्रह्म तेजस को सभी॥ [ १० ]

ओंकार की मात्रा तृतीया 'म' से मापक ध्वनित है,
'म' में विलीनीकरण 'म' में 'अ' व 'उ' सन्निहित है.
कारण, सुषुप्ति जग अधिष्ठाता में ॐ मकार है,
'म' प्राज्ञ व् सर्वज्ञ ब्रह्म का पाद तृतीया प्रकार है॥ [ ११ ]

मात्रा रहित ओंकार रूपातीत शिव है विशिष्ट है,
अथ जाने जो वह आत्मा परमात्मा में प्रविष्ट हैं.
मन वाणी का नहीं विषय अतः मर्म अगम अगम्य का,
निगुण, निराकारी स्वरुप, चौथा पाद है ब्रह्म का॥ [ १२ ]