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"लहरों का गीत / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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जीवन के फेनिल मोती को<br>
 
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ले ले चल करतल में टलमल!<br>
 
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छू छू मृदु मलयानिल रह रह<br>
 
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करता प्राणों को पुलकाकुल;<br>
 
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जीवन की लतिका में लहलह<br>
 
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विकसा इच्छा के नव नव दल!<br>
 
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सुन मधुर मरुत मुरली की ध्वनी<br>
 
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गृह-पुलिन नांध, सुख से विह्वल,<br>
 
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हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिल<br>
 
हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिल<br>
 
खस खस पडता उर से अंचल!<br>
 
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चिर जन्म-मरण को हँस हँस कर<br>
 
चिर जन्म-मरण को हँस हँस कर<br>
 
हम आलिंगन करती पल पल,<br>
 
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फिर फिर असीम से उठ उठ कर<br>
 
फिर फिर असीम से उठ उठ कर<br>
 
फिर फिर उसमें हो हो ओझल!<br><br>
 
फिर फिर उसमें हो हो ओझल!<br><br>

14:10, 15 दिसम्बर 2008 का अवतरण

लेखक: सुमित्रानंदन पंत

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अपने ही सुख से चिर चंचल
हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल,
जीवन के फेनिल मोती को
ले ले चल करतल में टलमल!

छू छू मृदु मलयानिल रह रह
करता प्राणों को पुलकाकुल;
जीवन की लतिका में लहलह
विकसा इच्छा के नव नव दल!

सुन मधुर मरुत मुरली की ध्वनी
गृह-पुलिन नांध, सुख से विह्वल,
हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिल
खस खस पडता उर से अंचल!

चिर जन्म-मरण को हँस हँस कर
हम आलिंगन करती पल पल,
फिर फिर असीम से उठ उठ कर
फिर फिर उसमें हो हो ओझल!