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"मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर

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शब्दार्थ :
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ज़िया= प्रकाश
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13:17, 17 दिसम्बर 2008 का अवतरण


मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग

रोज़ मैं चांद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ

खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में

मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में

मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग

मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ

मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ

शब्दार्थ :
तहरीर= लिखावट
ज़िया= प्रकाश