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"अग्निबीज / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर
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| − | रमे जूझते, | + | तुमने बोए थे |
| − | युग के बहु आयामी | + | रमे जूझते, |
| − | सपनों में, प्रिय | + | युग के बहु आयामी |
| − | खोए थे! | + | सपनों में, प्रिय |
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| − | तुमने बोए थे | + | अग्निबीज |
| + | तुमने बोए थे | ||
| − | तब के वे साथी | + | तब के वे साथी |
| − | क्या से क्या हो गए | + | क्या से क्या हो गए |
| − | कर दिया क्या से क्या तो, | + | कर दिया क्या से क्या तो, |
| − | देख–देख | + | देख–देख |
| − | प्रतिरूपी छवियाँ | + | प्रतिरूपी छवियाँ |
| − | पहले खीझे | + | पहले खीझे |
| − | फिर रोए थे | + | फिर रोए थे |
| − | अग्निबीज | + | अग्निबीज |
| − | तुमने बोए थे | + | तुमने बोए थे |
| − | ऋषि की दृष्टि | + | ऋषि की दृष्टि |
| − | मिली थी सचमुच | + | मिली थी सचमुच |
| − | भारतीय आत्मा थे तुम तो | + | भारतीय आत्मा थे तुम तो |
| − | लाभ–लोभ की हीन भावना | + | लाभ–लोभ की हीन भावना |
| − | पास न फटकी | + | पास न फटकी |
| − | अपनों की यह ओछी नीयत | + | अपनों की यह ओछी नीयत |
| − | प्रतिपल ही | + | प्रतिपल ही |
| − | काँटों–सी खटकी | + | काँटों–सी खटकी |
| − | स्वेच्छावश तुम | + | स्वेच्छावश तुम |
| − | शरशैया पर लेट गए थे | + | शरशैया पर लेट गए थे |
| − | लेकिन उन पतले होठों पर | + | लेकिन उन पतले होठों पर |
| − | मुस्कानों की आभा भी तो | + | मुस्कानों की आभा भी तो |
| − | कभी–कभी खेला करती थी! | + | कभी–कभी खेला करती थी ! |
| − | यही फूल की अभिलाषा थी | + | यही फूल की अभिलाषा थी |
| − | निश्चय¸ तुम तो | + | निश्चय¸ तुम तो |
| − | इस 'जन–युग' के | + | इस 'जन–युग' के |
| − | बोधिसत्व थे; | + | बोधिसत्व थे; |
| − | पारमिता में त्याग तत्व थे। < | + | पारमिता में त्याग तत्व थे। |
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11:13, 29 दिसम्बर 2008 का अवतरण
अग्निबीज
तुमने बोए थे
रमे जूझते,
युग के बहु आयामी
सपनों में, प्रिय
खोए थे !
अग्निबीज
तुमने बोए थे
तब के वे साथी
क्या से क्या हो गए
कर दिया क्या से क्या तो,
देख–देख
प्रतिरूपी छवियाँ
पहले खीझे
फिर रोए थे
अग्निबीज
तुमने बोए थे
ऋषि की दृष्टि
मिली थी सचमुच
भारतीय आत्मा थे तुम तो
लाभ–लोभ की हीन भावना
पास न फटकी
अपनों की यह ओछी नीयत
प्रतिपल ही
काँटों–सी खटकी
स्वेच्छावश तुम
शरशैया पर लेट गए थे
लेकिन उन पतले होठों पर
मुस्कानों की आभा भी तो
कभी–कभी खेला करती थी !
यही फूल की अभिलाषा थी
निश्चय¸ तुम तो
इस 'जन–युग' के
बोधिसत्व थे;
पारमिता में त्याग तत्व थे।

