भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"तुहमतें चन्द अपने ज़िम्मे धर चले / ख़्वाजा मीर दर्द" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
[[Category:ख़्वाजा मीर दर्द]]
 
[[Category:ख़्वाजा मीर दर्द]]
 
[[Category:कविताएँ]]
 
[[Category:कविताएँ]]
[[Category:गज़ल]]
+
[[Category:ग़ज़ल]]
  
 
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
 
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
 
+
<poem>
 
तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले ।
 
तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले ।
 
 
जिसलिए आये थे हम सो कर चले ।।   
 
जिसलिए आये थे हम सो कर चले ।।   
 
  
 
ज़िंदगी है या कोई तूफान है,
 
ज़िंदगी है या कोई तूफान है,
 
 
हम तो इस जीने के हाथों मर चले ।   
 
हम तो इस जीने के हाथों मर चले ।   
 
  
 
शमा के मानिंद हम इस बज़्म में,
 
शमा के मानिंद हम इस बज़्म में,
 
 
चश्मे-नम छाये थे, दामन तर चले ।   
 
चश्मे-नम छाये थे, दामन तर चले ।   
 
  
 
साक़िया याँ लग रहा है चल-चलाव,
 
साक़िया याँ लग रहा है चल-चलाव,
 
 
जब तलक बस चल सके साग़र चले ।
 
जब तलक बस चल सके साग़र चले ।
 +
</poem>

00:36, 30 दिसम्बर 2008 का अवतरण

रचनाकार: ख़्वाजा मीर दर्द

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*

तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले ।
जिसलिए आये थे हम सो कर चले ।।

ज़िंदगी है या कोई तूफान है,
हम तो इस जीने के हाथों मर चले ।

शमा के मानिंद हम इस बज़्म में,
चश्मे-नम छाये थे, दामन तर चले ।

साक़िया याँ लग रहा है चल-चलाव,
जब तलक बस चल सके साग़र चले ।