भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"शाख़ों पर लौट आये मौसम कोंपलों के/ विनय प्रजापति 'नज़र'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
विनय प्रजापति (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनय प्रजापति 'नज़र' }} Category:ग़ज़ल <poem> '''लेखन वर्ष: ...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
06:42, 30 दिसम्बर 2008 का अवतरण
लेखन वर्ष: २००४
शाख़ों पर लौट आये मौसम कोंपलों के
न क्यों फिर खिले, गुल दो दिलों के
यह उम्र जायेगी तेरे लिये ज़ाया
गर यह फ़ासले रहे यूँ ही मीलों के
तुम नहीं तो चाँदनी उदास रहती है
सब ताज़ा कँवल सूख गये झीलों के
ज़ब्रो-सब्र से क़ाबू आया है दिल
हर लम्हा बढ़ते हैं दौर मुश्किलों के
मैं लोगों की भीड़ में तन्हा रहता हूँ
मुझको रंग फ़ीके लगते हैं महफ़िलों के
सन्दली धूप की छुअन का यह जादू है
ख़ुशबू से भर गये जाम गुलों के
मैं यह सोच के जल जाता हूँ सनम
तुम्हें तीर चुभते होंगे मनचलों के
‘नज़र’ आज वाइज़ है बहुत ख़ामोश
क्या उसके पास हल नहीं मसलों के
शब्दार्थ:
ज़ाया: बेकार । कँवल: कमल के फूल । वाइज़: बुध्दिजीवी