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"हूक उठी दिल में कुछ ऐसी / महावीर शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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हूक उठी दिल में कुछ ऐसी , दूर क्षितिज तक चलता जाऊं।।
 
हूक उठी दिल में कुछ ऐसी , दूर क्षितिज तक चलता जाऊं।।
 
 
उच्च  शैल आनंद शिखर तक , अविचल होकर बढ़ता जाऊं।।
 
उच्च  शैल आनंद शिखर तक , अविचल होकर बढ़ता जाऊं।।
  
 
घनन घनन घन सघन गगन हो, दामिनी चमके दिग्दाहों से
 
घनन घनन घन सघन गगन हो, दामिनी चमके दिग्दाहों से
 
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तरल तिमिर  ना रोक सकेगा , मुझ को मेरी इन राहों से
तरल तिमिर  ना रोक सकेगा , मुझ को मेरी इन राहों से
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स्वच्छंद सुमन हों खिले जहां , गीत प्यार के गाता जाऊं।।
 
स्वच्छंद सुमन हों खिले जहां , गीत प्यार के गाता जाऊं।।
  
 
   
 
   
 
गरल जलद की झड़ी लगी हो , गूंज रहे हों सुर-श्मशान   
 
गरल जलद की झड़ी लगी हो , गूंज रहे हों सुर-श्मशान   
 
 
चिर-निद्रा का अट्टहास भी , गरज रहा हो प्रलय समान  
 
चिर-निद्रा का अट्टहास भी , गरज रहा हो प्रलय समान  
  
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बुद्धि-चेतना जागी क्षण में , छल-प्रपंच से बचता जाऊं ।।
 
बुद्धि-चेतना जागी क्षण में , छल-प्रपंच से बचता जाऊं ।।
 
         
 
  
 
रास्ते में देखा तोः                           
 
रास्ते में देखा तोः                           
  
 
दूर नगर से इक कुटिया में ,  टूट रहा था जीवन-बंधन
 
दूर नगर से इक कुटिया में ,  टूट रहा था जीवन-बंधन
 
 
जीर्ण-शीर्ण रोगी था पीड़ित;  मिटती सी रेखा सा जीवन       
 
जीर्ण-शीर्ण रोगी था पीड़ित;  मिटती सी रेखा सा जीवन       
  
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नि:स्वार्थ भाव से सेवा-रत, आनंद-शिखर बन जाता है       
 
नि:स्वार्थ भाव से सेवा-रत, आनंद-शिखर बन जाता है       
 
जीवन के निर्जन उपवन में , स्वच्छंद सुमन खिल जाता है   
 
जीवन के निर्जन उपवन में , स्वच्छंद सुमन खिल जाता है   

21:23, 10 जनवरी 2009 के समय का अवतरण

“हूक उठी दिल में कुछ ऐसी”

हूक उठी दिल में कुछ ऐसी , दूर क्षितिज तक चलता जाऊं।।
उच्च शैल आनंद शिखर तक , अविचल होकर बढ़ता जाऊं।।

घनन घनन घन सघन गगन हो, दामिनी चमके दिग्दाहों से
तरल तिमिर ना रोक सकेगा , मुझ को मेरी इन राहों से
  
स्वच्छंद सुमन हों खिले जहां , गीत प्यार के गाता जाऊं।।

 
गरल जलद की झड़ी लगी हो , गूंज रहे हों सुर-श्मशान
चिर-निद्रा का अट्टहास भी , गरज रहा हो प्रलय समान

प्रलयंकारी अंधकार में, बन आलोक बिखरता जाऊं।।

अरुण अधर, नयनों का जादू , विघ्न बने पथ में छल बनके
छीन रहे विश्वास-अडिग को , मन की परवशता सी बन के

बुद्धि-चेतना जागी क्षण में , छल-प्रपंच से बचता जाऊं ।।

रास्ते में देखा तोः

दूर नगर से इक कुटिया में , टूट रहा था जीवन-बंधन
जीर्ण-शीर्ण रोगी था पीड़ित; मिटती सी रेखा सा जीवन

जीवन के मिटते रंगों में , रंग खुशी के भरता जाऊ।।

    
नि:स्वार्थ भाव से सेवा-रत, आनंद-शिखर बन जाता है
जीवन के निर्जन उपवन में , स्वच्छंद सुमन खिल जाता है
      
जहां भूख से विकल दलित हो, दु:ख निवारण करता जाऊं ।।

हूक उठी दिल में कुछ ऐसी, अंधकार में चलता जाऊं।।