भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चील / तुलसी रमण" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसी रमण |संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण }} <poem> आ...)
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
|संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण
 
|संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण
 
}}
 
}}
 
+
आसमान में उड़ती  
<poem>
+
चील की झोली में
आसमान में उड़ती चील की झोली में अनगिनत मुट्ठियां रेत है जमीन पर फले कबूतरों के लिए  
+
अनगिनत मुट्ठियां रेत है
 +
जमीन पर फले  
 +
कबूतरों के लिए  
 
जिस छोर से भी  
 
जिस छोर से भी  
 
फड़फड़ाते हैं पंख
 
फड़फड़ाते हैं पंख
 
एक मुट्ठी रेत
 
एक मुट्ठी रेत
फेंक देती है चील और व्यस्त हो जाते हैं कबूतर दाना – दाना खोजने में  
+
  फेंक देती है चील  
चील की इस चाल पर जब सिर उठाते हैं कबूतर चील छेड़ देती है मल्हार सावन के अंधों के लिए ज्यों – ज्यों बदलते हैं मौसम चील बदल देती है राग  
+
और व्यस्त हो जाते हैं कबूतर  
खाली पेट कहीं शुरू होता है तांडव कहीं नंगे तन भरत – नाट्यम् और कहीं रणबांकुरे करने लगते अभ्यास  
+
दाना–दाना खोजने में  
पहाड़ से समुद्र तक फैली जमीन पर कबूतरों की गुटरगूं और चील का राग है  
+
 
बहुत कम दिखाई पड़ते हैं डफलियां लिए वे कुछ हाथ जिनका अपना – अपना राग है
+
चील की इस चाल पर  
 +
जब सिर उठाते हैं कबूतर  
 +
चील छेड़ देती है मल्हार  
 +
सावन के अंधों के लिए  
 +
ज्यों – ज्यों बदलते हैं मौसम  
 +
चील बदल देती है राग  
 +
खाली पेट कहीं शुरू होता है तांडव  
 +
कहीं नंगे तन भरत – नाट्यम्  
 +
और कहीं रणबांकुरे करने लगते अभ्यास  
 +
पहाड़ से समुद्र तक  
 +
फैली जमीन पर  
 +
कबूतरों की गुटरगूं  
 +
और चील का राग है  
 +
बहुत कम दिखाई पड़ते हैं  
 +
डफलियां लिए वे कुछ हाथ  
 +
जिनका अपना – अपना राग है  
 
</poem>
 
</poem>

02:19, 14 जनवरी 2009 का अवतरण

आसमान में उड़ती चील की झोली में अनगिनत मुट्ठियां रेत है जमीन पर फले कबूतरों के लिए जिस छोर से भी फड़फड़ाते हैं पंख एक मुट्ठी रेत

  फेंक देती है चील 

और व्यस्त हो जाते हैं कबूतर दाना–दाना खोजने में

चील की इस चाल पर जब सिर उठाते हैं कबूतर चील छेड़ देती है मल्हार सावन के अंधों के लिए ज्यों – ज्यों बदलते हैं मौसम चील बदल देती है राग खाली पेट कहीं शुरू होता है तांडव कहीं नंगे तन भरत – नाट्यम् और कहीं रणबांकुरे करने लगते अभ्यास पहाड़ से समुद्र तक फैली जमीन पर कबूतरों की गुटरगूं और चील का राग है बहुत कम दिखाई पड़ते हैं डफलियां लिए वे कुछ हाथ जिनका अपना – अपना राग है </poem>