"एक अरूप शून्य के प्रति / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर | विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर | ||
:स्वर्ग के पुल पर | :स्वर्ग के पुल पर | ||
+ | :चुंगी के नाकेदार | ||
+ | भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार!! | ||
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+ | ओ रे, निराकार शून्य! | ||
+ | महान विशेषताएँ मेरे सब जनों की | ||
+ | तूने उधार ले | ||
+ | निज को सँवार लिया | ||
+ | निज के अशेष किया | ||
+ | यशस्काय बन गया चिरंतन तिरोहित | ||
+ | यशोरूप रह गया सर्वत्र आविर्भूत। | ||
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+ | नई साँझ | ||
+ | कदंब वृक्ष के पास | ||
+ | मंदिर-चबूतरे पर बैठकर | ||
+ | जब कभी देखता हूँ तुझे | ||
+ | :मुझे याद आते हैं | ||
+ | भयभीत आँखों के हंस | ||
+ | :व घावभरे कबूतर | ||
+ | मुझे याद आते हैं मेरे लोग | ||
+ | उनके सब हृदय-रोग | ||
+ | :घुप्प अंधेरे घर, | ||
+ | पीली-पीली चिता के अंगारों जैसे पर. | ||
+ | मुझे याद आती है भगवान राम की शबरी, | ||
+ | मुझे याद आती है लाल-लाल जलती हुई ढिबरी | ||
+ | मुझे याद आता है मेरा प्यारा-प्यारा देश, | ||
+ | :लाल-लाल सुनहला आवेश। | ||
+ | :अंधा हूँ | ||
+ | खुदा के बंदों का बंदा हूँ बावला | ||
+ | परंतु कभी-कभी अनंत सौंदर्य संध्या में शंका के | ||
+ | काले-काले मेघ-सा, | ||
+ | काटे हुए गणित की तिर्यक रेखा-सा | ||
+ | :सरी-सृप-स्नेक-सा। | ||
+ | मेरे इस साँवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं, | ||
+ | :दाग हैं, | ||
+ | और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है | ||
+ | :अग्नि-विवेक की। | ||
+ | नहीं, नहीं, वह तो है ज्वलंत सरसिज!! | ||
+ | ज़िंदगी के दलदल-कीचड़ में धँसकर | ||
+ | :वृक्ष तक पानी में फँसकर | ||
+ | मैं वह कमल तोड़ लाया हूँ – | ||
+ | भीतर से, इसीलिए, गीला हूँ | ||
+ | :पंक से आवृत्त, | ||
+ | :स्वयं में घनीभूत | ||
+ | मुझे तेरी बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। | ||
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15:18, 16 जनवरी 2009 का अवतरण
रात और दिन
तुम्हारे दो कान हैं लंबे-चौड़े
एक बिल्कुल स्याह
दूसरा क़तई सफ़ेद।
हर दस घंटे में
करवट एक बदलते हो।
एक-न-एक कान
ढाँकता है आसमान
और इस तरह ज़माने के शुरू से
आसमानी शीशों के पलंग पर सोए हो।
और तुम भी खूब हो,
दोनों ओर पैर फँसा रक्खे हैं,
राम और रावण को खूब खुश,
खूब हँसा रक्खा है।
सृजन के घर में तुम
मनोहर शक्तिशाली
विश्वात्मक फैंटेसी
दुर्जनों के घर में
प्रचंड शौर्यवान् अंट-संट वरदान!!
खूब रंगदारी है,
तुम्हारी नीति बड़ी प्यारी है।
विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर
स्वर्ग के पुल पर
चुंगी के नाकेदार
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार!!
ओ रे, निराकार शून्य!
महान विशेषताएँ मेरे सब जनों की
तूने उधार ले
निज को सँवार लिया
निज के अशेष किया
यशस्काय बन गया चिरंतन तिरोहित
यशोरूप रह गया सर्वत्र आविर्भूत।
नई साँझ
कदंब वृक्ष के पास
मंदिर-चबूतरे पर बैठकर
जब कभी देखता हूँ तुझे
मुझे याद आते हैं
भयभीत आँखों के हंस
व घावभरे कबूतर
मुझे याद आते हैं मेरे लोग
उनके सब हृदय-रोग
घुप्प अंधेरे घर,
पीली-पीली चिता के अंगारों जैसे पर.
मुझे याद आती है भगवान राम की शबरी,
मुझे याद आती है लाल-लाल जलती हुई ढिबरी
मुझे याद आता है मेरा प्यारा-प्यारा देश,
लाल-लाल सुनहला आवेश।
अंधा हूँ
खुदा के बंदों का बंदा हूँ बावला
परंतु कभी-कभी अनंत सौंदर्य संध्या में शंका के
काले-काले मेघ-सा,
काटे हुए गणित की तिर्यक रेखा-सा
सरी-सृप-स्नेक-सा।
मेरे इस साँवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,
दाग हैं,
और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है
अग्नि-विवेक की।
नहीं, नहीं, वह तो है ज्वलंत सरसिज!!
ज़िंदगी के दलदल-कीचड़ में धँसकर
वृक्ष तक पानी में फँसकर
मैं वह कमल तोड़ लाया हूँ –
भीतर से, इसीलिए, गीला हूँ
पंक से आवृत्त,
स्वयं में घनीभूत
मुझे तेरी बिल्कुल ज़रूरत नहीं है।