"बाल काण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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− | <br>बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु | + | <br>बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥ |
− | <br>पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु | + | <br>पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥ |
− | <br>जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर | + | <br>जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥ |
− | <br>बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित | + | <br>बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥ |
− | <br>पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय | + | <br>पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥ |
− | <br>कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह | + | <br>कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥ |
− | <br>बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित | + | <br>बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥ |
− | <br>चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज | + | <br>चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥ |
− | <br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु | + | <br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥ |
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− | <br>जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज | + | <br>जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥ |
− | <br>तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि | + | <br>तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥ |
− | <br>जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु | + | <br>जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥ |
− | <br>ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम | + | <br>ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥ |
− | <br>प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म | + | <br>प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥ |
− | <br>सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन | + | <br>सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥ |
− | <br>तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग | + | <br>तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥ |
− | <br>रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति | + | <br>रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि। |
− | <br>देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति | + | <br>देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥ |
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− | <br>जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि | + | <br>जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥ |
− | <br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ | + | <br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥ |
− | <br>मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि | + | <br>मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥ |
− | <br>तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम | + | <br>तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥ |
− | <br>अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर | + | <br>अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥ |
− | <br>प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि | + | <br>प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥ |
− | <br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन | + | <br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥ |
− | <br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन | + | <br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि। |
− | <br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत | + | <br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥ |
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− | <br>जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन | + | <br>जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥ |
− | <br>गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ | + | <br>गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥ |
− | <br>अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि | + | <br>अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥ |
− | <br>प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु | + | <br>प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥ |
− | <br>पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु | + | <br>पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥ |
− | <br>कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन | + | <br>कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥ |
− | <br>बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन | + | <br>बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥ |
− | <br>राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर | + | <br>राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम। |
− | <br>प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज | + | <br>प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥११०॥ |
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− | <br>पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि | + | <br>पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥ |
− | <br>भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित | + | <br>भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥ |
− | <br>औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल | + | <br>औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥ |
− | <br>जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि | + | <br>जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥ |
− | <br>तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का | + | <br>तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥ |
− | <br>प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन | + | <br>प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥ |
− | <br>हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल | + | <br>हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥ |
− | <br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख | + | <br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह। |
− | <br>रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै | + | <br>रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥ |
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− | <br>झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु | + | <br>झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ |
− | <br>जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम | + | <br>जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥ |
− | <br>बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु | + | <br>बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥ |
− | <br>मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर | + | <br>मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥ |
− | <br>करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा | + | <br>करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥ |
− | <br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ | + | <br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥ |
− | <br>पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि | + | <br>पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥ |
− | <br>तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित | + | <br>तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं। |
− | <br>सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु | + | <br>सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥ |
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− | <br>तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित | + | <br>तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥ |
− | <br>जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन | + | <br>जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥ |
− | <br>नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर | + | <br>नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥ |
− | <br>ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद | + | <br>ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥ |
− | <br>जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ | + | <br>जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥ |
− | <br>जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह | + | <br>जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥ |
− | <br>कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो | + | <br>कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥ |
− | <br>गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज | + | <br>गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि। |
− | <br>सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस | + | <br>सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥ |
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− | <br>रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग | + | <br>रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥ |
− | <br>रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु | + | <br>रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥ |
− | <br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति | + | <br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥ |
− | <br>जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन | + | <br>जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥ |
− | <br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति | + | <br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥ |
− | <br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि | + | <br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥ |
− | <br>एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु | + | <br>एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥ |
− | <br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि | + | <br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। |
− | <br>पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न | + | <br>पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥११४॥ |
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− | <br>अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन | + | <br>अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥ |
− | <br>लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं | + | <br>लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥ |
− | <br>कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं | + | <br>कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥ |
− | <br>मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि | + | <br>मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥ |
− | <br>जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन | + | <br>जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥ |
− | <br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित | + | <br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥ |
− | <br>बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन | + | <br>बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥ |
− | <br>जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं | + | <br>जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद। |
− | <br>सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन | + | <br>सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥ |
− | <br>सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध | + | <br>सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥ |
− | <br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो | + | <br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ |
− | <br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं | + | <br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥ |
− | <br>जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह | + | <br>जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥ |
− | <br>राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा | + | <br>राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥ |
− | <br>सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान | + | <br>सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥ |
− | <br>हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति | + | <br>हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥ |
− | <br>राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस | + | <br>राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥ |
− | <br>रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ | + | <br>रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥ |
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− | <br>निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ | + | <br>निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥ |
− | <br>जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं | + | <br>जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥ |
− | <br>चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के | + | <br>चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥ |
− | <br>उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि | + | <br>उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥ |
− | <br>बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक | + | <br>बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥ |
− | <br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति | + | <br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥ |
− | <br>जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन | + | <br>जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥ |
− | <br>जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह | + | <br>जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि। |
− | <br>जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ | + | <br>जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥ |
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− | <br>एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख | + | <br>एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥ |
− | <br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख | + | <br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥ |
− | <br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल | + | <br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥ |
− | <br>आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस | + | <br>आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥ |
− | <br>बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि | + | <br>बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥ |
− | <br>आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ | + | <br>आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ |
− | <br>तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास | + | <br>तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥ |
− | <br>असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं | + | <br>असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥ |
− | <br>सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति | + | <br>सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥ |
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− | <br>कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ | + | <br>कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥ |
− | <br>सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर | + | <br>सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥ |
− | <br>बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ | + | <br>बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥ |
− | <br>सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव | + | <br>सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥ |
− | <br>राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव | + | <br>राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥ |
− | <br>अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन | + | <br>अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥ |
− | <br>सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै | + | <br>सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥ |
− | <br>भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना | + | <br>भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि। |
− | <br>बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस | + | <br>बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥ |
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− | <br>ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप | + | <br>ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥ |
− | <br>तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि | + | <br>तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥ |
− | <br>नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन | + | <br>नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥ |
− | <br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि | + | <br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥ |
− | <br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु | + | <br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥ |
− | <br>राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर | + | <br>राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥ |
− | <br>नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु | + | <br>नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥ |
− | <br>उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति | + | <br>उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान |
− | <br>बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले | + | <br>बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥१२०(क)॥ |
<br>नवान्हपारायन,पहला विश्राम | <br>नवान्हपारायन,पहला विश्राम | ||
<br>मासपारायण, चौथा विश्राम | <br>मासपारायण, चौथा विश्राम | ||
− | <br> | + | <br>सो०-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल। |
− | <br>कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक | + | <br>कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥१२०(ख)॥ |
<br>सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब। | <br>सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब। | ||
− | <br>सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर | + | <br>सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥१२०(ग)॥ |
<br>हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित। | <br>हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित। | ||
− | <br>मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर | + | <br>मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥१२०(घ॥ |
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− | <br>सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम | + | <br>सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥ |
− | <br>हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न | + | <br>हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥ |
− | <br>राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि | + | <br>राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥ |
− | <br>तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति | + | <br>तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥ |
− | <br>तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन | + | <br>तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥ |
− | <br>जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम | + | <br>जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥ |
− | <br>करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर | + | <br>करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥ |
− | <br>तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन | + | <br>तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। |
− | <br>जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर | + | <br>जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥ |
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− | <br>सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु | + | <br>सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥ |
− | <br>राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें | + | <br>राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥ |
− | <br>जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति | + | <br>जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥ |
− | <br>द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब | + | <br>द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥ |
− | <br>बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह | + | <br>बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥ |
− | <br>कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद | + | <br>कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥ |
− | <br>बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक | + | <br>बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥ |
− | <br>होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस | + | <br>होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान। |
− | <br>कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग | + | <br>कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२ । |
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− | <br>मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन | + | <br>मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥ |
− | <br>एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत | + | <br>एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥ |
− | <br>कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या | + | <br>कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥ |
− | <br>एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए | + | <br>एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥ |
− | <br>एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब | + | <br>एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥ |
− | <br>संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न | + | <br>संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥ |
− | <br>परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं | + | <br>परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥ |
− | <br>जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि | + | <br>जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥ |
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− | <br>तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल | + | <br>तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥ |
− | <br>तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद | + | <br>तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥ |
− | <br>एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी | + | <br>एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥ |
− | <br>प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह | + | <br>प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥ |
− | <br>नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि | + | <br>नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥ |
− | <br>गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि | + | <br>गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥ |
− | <br>कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति | + | <br>कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥ |
− | <br>यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज | + | <br>यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ। |
− | <br>जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन | + | <br>जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४(क)॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु। |
− | <br>भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान | + | <br>भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥१२४(ख)॥ |
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− | <br>हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी | + | <br>हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥ |
− | <br>आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति | + | <br>आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥ |
− | <br>निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद | + | <br>निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥ |
− | <br>सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि | + | <br>सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥ |
− | <br>मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह | + | <br>मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥ |
− | <br>सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ | + | <br>सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥ |
− | <br>सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर | + | <br>सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥ |
− | <br>जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि | + | <br>जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज। |
− | <br>छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न | + | <br>छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत | + | <br>तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥ |
− | <br>कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि | + | <br>कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥ |
− | <br>चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु | + | <br>चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥ |
− | <br>रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला | + | <br>रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥ |
− | <br>करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि | + | <br>करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥ |
− | <br>देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि | + | <br>देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥ |
− | <br>काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव | + | <br>काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥ |
− | <br>सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति | + | <br>सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥ |
− | <br> | + | <br>दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन। |
− | <br>गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत | + | <br>गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम | + | <br>भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥ |
− | <br>नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित | + | <br>नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥ |
− | <br>मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब | + | <br>मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥ |
− | <br>सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु | + | <br>सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥ |
− | <br>तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन | + | <br>तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥ |
− | <br>मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस | + | <br>मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥ |
− | <br>बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु | + | <br>बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥ |
− | <br>तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु | + | <br>तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान। |
− | <br>भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा | + | <br>भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं | + | <br>राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥ |
− | <br>संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक | + | <br>संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥ |
− | <br>एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान | + | <br>एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥ |
− | <br>छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास | + | <br>छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥ |
− | <br>हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि | + | <br>हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥ |
− | <br>बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि | + | <br>बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥ |
− | <br>काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ | + | <br>काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥ |
− | <br>अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग | + | <br>अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान । |
− | <br>तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद | + | <br>तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं | + | <br>सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥ |
− | <br>ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव | + | <br>ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥ |
− | <br>नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल | + | <br>नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥ |
− | <br>करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु | + | <br>करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥ |
− | <br>बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक | + | <br>बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥ |
− | <br>मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै | + | <br>मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥ |
− | <br>तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति | + | <br>तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥ |
− | <br>श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि | + | <br>श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार। |
− | <br>श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध | + | <br>श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥ |
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− | <br>बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति | + | <br>बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥ |
− | <br>तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन | + | <br>तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥ |
− | <br>सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति | + | <br>सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥ |
− | <br>बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु | + | <br>बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥ |
− | <br>सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ | + | <br>सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥ |
− | <br>करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित | + | <br>करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥ |
− | <br>मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत | + | <br>मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥ |
− | <br>सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि | + | <br>सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि। |
− | <br>कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ | + | <br>कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥ |
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− | <br>देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे | + | <br>देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥ |
− | <br>लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट | + | <br>लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥ |
− | <br>जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न | + | <br>जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥ |
− | <br>सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या | + | <br>सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥ |
− | <br>लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन | + | <br>लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥ |
− | <br>सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन | + | <br>सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥ |
− | <br>करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै | + | <br>करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥ |
− | <br>जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि | + | <br>जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल। |
− | <br>जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै | + | <br>जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति | + | <br>हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥ |
− | <br>मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ | + | <br>मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥ |
− | <br>बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी | + | <br>बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥ |
− | <br>प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ | + | <br>प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥ |
− | <br>अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु | + | <br>अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥ |
− | <br>आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं | + | <br>आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥ |
− | <br>जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं | + | <br>जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥ |
− | <br>निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले | + | <br>निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। |
− | <br>सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा | + | <br>सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि | + | <br>कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥ |
− | <br>एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु | + | <br>एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥ |
− | <br>माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा | + | <br>माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥ |
− | <br>गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि | + | <br>गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥ |
− | <br>निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित | + | <br>निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥ |
− | <br>मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न | + | <br>मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥ |
− | <br>मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ | + | <br>मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥ |
− | <br>सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर | + | <br>सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br> | + | <br>दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। |
− | <br>बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी | + | <br>बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥१३३॥ |
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− | <br>जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति | + | <br>जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥ |
− | <br>तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न | + | <br>तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥ |
− | <br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि | + | <br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥ |
− | <br>रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि | + | <br>रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥ |
− | <br>मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु | + | <br>मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥ |
− | <br>जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम | + | <br>जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥ |
− | <br>काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ | + | <br>काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥ |
− | <br>मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा | + | <br>मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल। |
− | <br>देखत फिरइ महीप सब कर सरोज | + | <br>देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥ |
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− | <br>जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी | + | <br>जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥ |
− | <br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन | + | <br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥ |
− | <br>धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ | + | <br>धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥ |
− | <br>दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ | + | <br>दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥ |
− | <br>मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु | + | <br>मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥ |
− | <br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु | + | <br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥ |
− | <br>अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि | + | <br>अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥ |
− | <br>बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति | + | <br>बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ। |
− | <br>हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि | + | <br>हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥ |
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− | <br>पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न | + | <br>पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥ |
− | <br>फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति | + | <br>फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥ |
− | <br>देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास | + | <br>देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥ |
− | <br>बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ | + | <br>बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥ |
− | <br>बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की | + | <br>बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥ |
− | <br>सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन | + | <br>सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥ |
− | <br>पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट | + | <br>पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥ |
− | <br>मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान | + | <br>मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु। |
− | <br>स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट | + | <br>स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥ |
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− | <br>परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह | + | <br>परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥ |
− | <br>भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु | + | <br>भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥ |
− | <br>डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा | + | <br>डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥ |
− | <br>करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ | + | <br>करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥ |
− | <br>भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन | + | <br>भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥ |
− | <br>बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम | + | <br>बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥ |
− | <br>कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय | + | <br>कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥ |
− | <br>मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब | + | <br>मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि। |
− | <br>निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि | + | <br>निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥१३७॥ |
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− | <br>जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न | + | <br>जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥ |
− | <br>तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति | + | <br>तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥ |
− | <br>मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह | + | <br>मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥ |
− | <br>मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि | + | <br>मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥ |
− | <br>जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत | + | <br>जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥ |
− | <br>कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि | + | <br>कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥ |
− | <br>जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति | + | <br>जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥ |
− | <br>अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया | + | <br>अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥ |
− | <br>सत्यलोक नारद चले करत राम गुन | + | <br>सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥१३८॥ |
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− | <br>हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष | + | <br>हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥ |
− | <br>अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन | + | <br>अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥ |
− | <br>हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल | + | <br>हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥ |
− | <br>श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद | + | <br>श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥ |
− | <br>निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल | + | <br>निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥ |
<br>भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ। | <br>भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ। | ||
− | <br>समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि | + | <br>समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥ |
− | <br>चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि | + | <br>चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। |
− | <br>सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि | + | <br>सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥१३९॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र | + | <br>एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥ |
− | <br>कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि | + | <br>कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥ |
− | <br>तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध | + | <br>तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥ |
− | <br>बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु | + | <br>बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥ |
− | <br>हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब | + | <br>हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥ |
− | <br>रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न | + | <br>रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥ |
− | <br>यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि | + | <br>यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥ |
− | <br>प्रभु कौतुकी प्रनत | + | <br>प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥ |
− | <br>अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया | + | <br>अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥१४०॥ |
− | <br>अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा | + | <br>अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥ |
− | <br>जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर | + | <br>जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥ |
− | <br>जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें | + | <br>जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥ |
− | <br>जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु | + | <br>जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥ |
− | <br>अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज | + | <br>अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥ |
− | <br>लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति | + | <br>लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥ |
− | <br>भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा | + | <br>भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥ |
− | <br>लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि | + | <br>लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥ |
− | <br>राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि | + | <br>राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥ |
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− | <br>स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि | + | <br>स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥ |
− | <br>दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै | + | <br>दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥ |
− | <br>नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत | + | <br>नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥ |
− | <br>लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि | + | <br>लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥ |
− | <br>देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय | + | <br>देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥ |
− | <br>आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल | + | <br>आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥ |
− | <br>सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन | + | <br>सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥ |
− | <br>तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि | + | <br>तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन। |
− | <br>हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति | + | <br>हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥ |
− | <br>बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन | + | <br>बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥ |
− | <br>तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि | + | <br>तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥ |
− | <br>बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु | + | <br>बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥ |
− | <br>पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें | + | <br>पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥ |
− | <br>पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल | + | <br>पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥ |
− | <br>आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि | + | <br>आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥ |
− | <br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर | + | <br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥ |
<br>कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना । | <br>कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना । | ||
− | <br> | + | <br>दो०-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग। |
− | <br>बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति | + | <br>बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥१४३॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म | + | <br>करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥ |
− | <br>पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल | + | <br>पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥ |
− | <br>उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु | + | <br>उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥ |
− | <br>अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं | + | <br>अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥ |
− | <br>नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि | + | <br>नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥ |
− | <br>संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें | + | <br>संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥ |
− | <br>ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु | + | <br>ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥ |
− | <br>जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि | + | <br>जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार। |
− | <br>संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर | + | <br>संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥१४४॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद | + | <br>बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥ |
− | <br>बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु | + | <br>बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥ |
− | <br>मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं | + | <br>मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥ |
− | <br>अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं | + | <br>अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥ |
− | <br>प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप | + | <br>प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥ |
− | <br>मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत | + | <br>मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥ |
− | <br>मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब | + | <br>मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥ |
− | <br>ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते | + | <br>ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात। |
− | <br>बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ | + | <br>बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥१४५॥ |
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− | <br>सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद | + | <br>सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥ |
− | <br>सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर | + | <br>सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥ |
− | <br>जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर | + | <br>जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥ |
− | <br>जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन | + | <br>जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥ |
− | <br>जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम | + | <br>जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥ |
− | <br>देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति | + | <br>देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥ |
− | <br>दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस | + | <br>दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥ |
− | <br>भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे | + | <br>भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। |
− | <br>लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत | + | <br>लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥ |
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− | <br>सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर | + | <br>सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥ |
− | <br>अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक | + | <br>अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥ |
− | <br>नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी | + | <br>नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥ |
− | <br>भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल | + | <br>भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥ |
− | <br>कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप | + | <br>कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥ |
− | <br>उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन | + | <br>उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥ |
− | <br>केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर | + | <br>केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥ |
− | <br>करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर | + | <br>करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥ |
− | <br>नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि | + | <br>नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥ |
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− | <br>पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह | + | <br>पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥ |
− | <br>बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि | + | <br>बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥ |
− | <br>जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा | + | <br>जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥ |
− | <br>भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता | + | <br>भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥ |
− | <br>छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट | + | <br>छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥ |
− | <br>चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु | + | <br>चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥ |
− | <br>हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद | + | <br>हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥ |
− | <br>सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए | + | <br>सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। |
− | <br>मागहु बर जोइ भाव मन महादानि | + | <br>मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥ |
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− | <br>सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु | + | <br>सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥ |
− | <br>नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम | + | <br>नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥ |
− | <br>एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो | + | <br>एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥ |
− | <br>तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज | + | <br>तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥ |
− | <br>जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत | + | <br>जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥ |
− | <br>तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय | + | <br>तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥ |
− | <br>सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ | + | <br>सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥ |
− | <br>सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु | + | <br>सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥ |
− | <br>चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन | + | <br>चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥ |
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− | <br>देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि | + | <br>देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥ |
− | <br>आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं | + | <br>आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥ |
− | <br>सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि | + | <br>सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥ |
− | <br>जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय | + | <br>जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥ |
− | <br>प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि | + | <br>प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥ |
− | <br>तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर | + | <br>तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥ |
− | <br>अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि | + | <br>अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥ |
− | <br>जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति | + | <br>जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥ |
− | <br>सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि | + | <br>सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥ |
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− | <br>सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु | + | <br>सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥ |
− | <br>जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय | + | <br>जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥ |
<br>मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें । | <br>मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें । | ||
− | <br>बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु | + | <br>बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी॥ |
− | <br>सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन | + | <br>सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥ |
− | <br>मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि | + | <br>मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥ |
− | <br>अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि | + | <br>अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥ |
− | <br>अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति | + | <br>अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि। |
− | <br>होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार | + | <br>होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥१५१॥ |
− | <br>इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत | + | <br>इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥ |
− | <br>अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत | + | <br>अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥ |
− | <br>जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद | + | <br>जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥ |
− | <br>आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह | + | <br>आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥ |
− | <br>पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य | + | <br>पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥ |
− | <br>पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए | + | <br>पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥ |
− | <br>दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु | + | <br>दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥ |
− | <br>समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति | + | <br>समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु। |
− | <br>भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर | + | <br>भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥१५२॥ |
<br>मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम | <br>मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम | ||
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<br> | <br> | ||
− | <br>सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु | + | <br>सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥ |
− | <br>बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ | + | <br>बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥ |
− | <br>धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील | + | <br>धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥ |
− | <br>तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा | + | <br>तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस | + | <br>राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥ |
− | <br>अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल | + | <br>अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥ |
− | <br>भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित | + | <br>भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥ |
− | <br>जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन | + | <br>जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस। |
− | <br>प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ | + | <br>प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥१५३॥ |
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− | <br>नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र | + | <br>नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥ |
− | <br>सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज | + | <br>सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥ |
− | <br>सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर | + | <br>सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥ |
− | <br>सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे | + | <br>सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥ |
− | <br>बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ | + | <br>बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥ |
− | <br>जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप | + | <br>जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई॥ |
− | <br>सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप | + | <br>सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥ |
− | <br>सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु | + | <br>सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु। |
− | <br>अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ | + | <br>अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥१५४॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि | + | <br>भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥ |
− | <br>सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर | + | <br>सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥ |
− | <br>सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित | + | <br>सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥ |
− | <br>गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै | + | <br>गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥ |
− | <br>भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख | + | <br>भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥ |
− | <br>दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद | + | <br>दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥ |
− | <br>नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर | + | <br>नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥ |
− | <br>बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र | + | <br>बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। |
− | <br>बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित | + | <br>बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग॥१५५॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम | + | <br>हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥ |
− | <br>करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप | + | <br>करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥ |
− | <br>चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि | + | <br>चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥ |
− | <br>बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत | + | <br>बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥ |
− | <br>फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि | + | <br>फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥ |
− | <br>बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत | + | <br>बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥ |
− | <br>कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर | + | <br>कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥ |
− | <br>घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान | + | <br>घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु। |
− | <br>चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ | + | <br>चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥१५६॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति | + | <br>आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥ |
− | <br>तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत | + | <br>तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥ |
− | <br>तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर | + | <br>तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥ |
− | <br>प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग | + | <br>प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥ |
− | <br>गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि | + | <br>गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥ |
− | <br>अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ | + | <br>अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥ |
− | <br>कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ | + | <br>कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥ |
− | <br>अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ | + | <br>अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत। |
− | <br>खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ | + | <br>खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥ |
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− | <br>फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट | + | <br>फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥ |
− | <br>जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ | + | <br>जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥ |
− | <br>समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय | + | <br>समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥ |
− | <br>गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप | + | <br>गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥ |
− | <br>रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें | + | <br>रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥ |
− | <br>तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब | + | <br>तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥ |
− | <br>राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि | + | <br>राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥ |
− | <br>उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज | + | <br>उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥ |
− | <br> | + | <br>दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ। |
− | <br>मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति | + | <br>मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै | + | <br>गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥ |
− | <br>आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु | + | <br>आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥ |
− | <br>को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव | + | <br>को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥ |
− | <br>चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति | + | <br>चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥ |
− | <br>नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु | + | <br>नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥ |
− | <br>फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद | + | <br>फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥ |
− | <br>हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल | + | <br>हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥ |
− | <br>कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु | + | <br>कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान। |
− | <br>बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत | + | <br>बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥१५९(क)॥ |
<br>तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ। | <br>तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ। | ||
− | <br>आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै | + | <br>आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥१५९(ख)॥ |
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− | <br>भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ | + | <br>भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥ |
− | <br>नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य | + | <br>नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥ |
− | <br>पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ | + | <br>पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥ |
− | <br>मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु | + | <br>मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥ |
− | <br>तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट | + | <br>तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना॥ |
− | <br>बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज | + | <br>बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥ |
− | <br>समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ | + | <br>समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥ |
− | <br>सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ | + | <br>सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥ |
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− | <br> | + | <br>दो०-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत। |
− | <br>नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित | + | <br>नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति॥१६०॥ |
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− | <br>कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित | + | <br>कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥ |
− | <br>सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष | + | <br>सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥ |
− | <br>तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि | + | <br>तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥ |
− | <br>तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि | + | <br>तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥ |
− | <br>जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब | + | <br>जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥ |
− | <br>सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास | + | <br>सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥ |
− | <br>सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह | + | <br>सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥ |
− | <br>सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु | + | <br>सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु। |
− | <br>लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन | + | <br>लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥१६१(क)॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। |
− | <br>सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन | + | <br>सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥१६१(ख) |
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− | <br>तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन | + | <br>तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥ |
− | <br>प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक | + | <br>प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥ |
− | <br>तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर | + | <br>तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥ |
− | <br>अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति | + | <br>अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥ |
− | <br>जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज | + | <br>जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥ |
− | <br>देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस | + | <br>देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥ |
− | <br>नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु | + | <br>नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई॥ |
− | <br>कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन | + | <br>कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि। |
− | <br>नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी | + | <br>नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥१६२॥ |
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− | <br>जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु | + | <br>जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥ |
− | <br>तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए | + | <br>तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥ |
− | <br>तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु | + | <br>तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥ |
− | <br>भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो | + | <br>भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥ |
− | <br>करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति | + | <br>करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥ |
− | <br>उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज | + | <br>उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥ |
− | <br>सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब | + | <br>सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ॥ |
− | <br>कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल | + | <br>कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप। |
− | <br>मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि | + | <br>मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥ |
− | <br>नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता | + | <br>नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥ |
− | <br>गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि | + | <br>गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥ |
− | <br>देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति | + | <br>देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥ |
− | <br>उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे | + | <br>उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥ |
− | <br>अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन | + | <br>अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥ |
− | <br>सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि | + | <br>सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥ |
− | <br>कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल | + | <br>कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥ |
− | <br>प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ | + | <br>प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ। |
− | <br>एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत | + | <br>एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥१६४॥ |
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− | <br>कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु | + | <br>कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥ |
− | <br>कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि | + | <br>कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥ |
− | <br>तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ | + | <br>तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥ |
− | <br>जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु | + | <br>जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥ |
− | <br>चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा | + | <br>चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥ |
− | <br>बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ | + | <br>बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥ |
− | <br>हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब | + | <br>हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥ |
− | <br>तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल | + | <br>तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि। |
− | <br>मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न | + | <br>मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥१६५॥ |
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− | <br>तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम | + | <br>तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम | + | <br>छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥ |
− | <br>यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु | + | <br>यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥ |
− | <br>आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन | + | <br>आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥ |
− | <br>सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को | + | <br>सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥ |
− | <br>राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग | + | <br>राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥ |
− | <br>जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच | + | <br>जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥ |
− | <br>एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति | + | <br>एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ। |
− | <br>तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ | + | <br>तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ॥१६६॥ |
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− | <br>सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि | + | <br>सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥ |
− | <br>अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक | + | <br>अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥ |
− | <br>मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न | + | <br>मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥ |
− | <br>आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न | + | <br>आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥ |
− | <br>जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस | + | <br>जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥ |
− | <br>सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति | + | <br>सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥ |
− | <br>बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन | + | <br>बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥ |
− | <br>जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर | + | <br>जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥ |
− | <br> | + | <br>दो०- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल। |
− | <br>मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन | + | <br>मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥१६७॥ |
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− | <br>जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट | + | <br>जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥ |
− | <br>सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु | + | <br>सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥ |
− | <br>अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं | + | <br>अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥ |
− | <br>जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ | + | <br>जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥ |
− | <br>जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न | + | <br>जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥ |
− | <br>अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु | + | <br>अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥ |
− | <br>पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु | + | <br>पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥ |
− | <br>जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप | + | <br>जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार। |
− | <br>मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब | + | <br>मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब जेवनार॥१६८॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस | + | <br>एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥ |
− | <br>करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस | + | <br>करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥ |
− | <br>और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब | + | <br>और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥ |
− | <br>तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज | + | <br>तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥ |
− | <br>तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष | + | <br>तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥ |
− | <br>मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब | + | <br>मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥ |
− | <br>गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन | + | <br>गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥ |
− | <br>मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि | + | <br>मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि। |
− | <br>जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं | + | <br>जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥१६९॥ |
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− | <br>सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ | + | <br>सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥ |
− | <br>श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच | + | <br>श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥ |
− | <br>कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि | + | <br>कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥ |
− | <br>परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट | + | <br>परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥ |
− | <br>तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव | + | <br>तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥ |
− | <br>प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि | + | <br>प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥ |
− | <br>तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र | + | <br>तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥ |
− | <br>जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु | + | <br>जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु। |
− | <br>अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित | + | <br>अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥१७०॥ |
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− | <br>तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ | + | <br>तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥ |
− | <br>मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख | + | <br>मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥ |
− | <br>अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर | + | <br>अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥ |
− | <br>परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि | + | <br>परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥ |
− | <br>कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं | + | <br>कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥ |
− | <br>तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी | + | <br>तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥ |
− | <br>भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ | + | <br>भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥ |
− | <br>नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि | + | <br>नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि। |
− | <br>लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति | + | <br>लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥१७१॥ |
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− | <br>आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज | + | <br>आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥ |
− | <br>जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु | + | <br>जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥ |
− | <br>मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न | + | <br>मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥ |
− | <br>कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ | + | <br>कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥ |
− | <br>गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज | + | <br>गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥ |
− | <br>उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ | + | <br>उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥ |
− | <br>जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति | + | <br>जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥ |
− | <br>समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि | + | <br>समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत। |
− | <br>बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब | + | <br>बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥ |
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− | <br>उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति | + | <br>उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥ |
− | <br>मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न | + | <br>मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥ |
− | <br>बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल | + | <br>बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥ |
− | <br>भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर | + | <br>भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥ |
− | <br>परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि | + | <br>परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥ |
− | <br>बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि | + | <br>बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥ |
− | <br>भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि | + | <br>भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥ |
− | <br>भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख | + | <br>भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार। |
− | <br>जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित | + | <br>जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥१७३॥ |
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− | <br>छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित | + | <br>छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥ |
− | <br>ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत | + | <br>ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥ |
− | <br>संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल | + | <br>संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥ |
− | <br>नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा | + | <br>नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥ |
− | <br>बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु | + | <br>बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥ |
− | <br>चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन | + | <br>चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥ |
− | <br>तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच | + | <br>तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥ |
− | <br>सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं | + | <br>सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर। |
− | <br>किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति | + | <br>किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥१७४॥ |
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− | <br>अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह | + | <br>अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥ |
− | <br>सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय | + | <br>सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं॥ |
− | <br>उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि | + | <br>उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥ |
− | <br>तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब | + | <br>तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥ |
− | <br>घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई | + | <br>घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई॥ |
− | <br>जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप | + | <br>जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥ |
− | <br>सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ | + | <br>सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥ |
− | <br>रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु | + | <br>रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम। |
− | <br>धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम | + | <br>धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।१७५॥ |
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− | <br>काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित | + | <br>काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥ |
− | <br>दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर | + | <br>दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥ |
− | <br>भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन | + | <br>भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥ |
− | <br>सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु | + | <br>सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥ |
− | <br>नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान | + | <br>नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥ |
− | <br>रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर | + | <br>रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥ |
− | <br>कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत | + | <br>कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥ |
− | <br>कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व | + | <br>कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप। |
− | <br>तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल | + | <br>तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥१७६॥ |
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− | <br>कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो | + | <br>कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥ |
− | <br>गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं | + | <br>गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु | + | <br>करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥ |
− | <br>हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ | + | <br>हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥ |
− | <br>एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर | + | <br>एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥ |
− | <br>पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय | + | <br>पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥ |
− | <br>जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि | + | <br>जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥ |
− | <br>सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट | + | <br>सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु। |
− | <br>तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल | + | <br>तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥१७७॥ |
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− | <br>तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह | + | <br>तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥ |
− | <br>मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि | + | <br>मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥ |
− | <br>सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति | + | <br>सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥ |
− | <br>हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि | + | <br>हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥ |
− | <br>गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति | + | <br>गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥ |
− | <br>सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन | + | <br>सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥ |
− | <br>भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि | + | <br>भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥ |
− | <br>तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि | + | <br>तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव। |
− | <br>कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ | + | <br>कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥१७८(क)॥ |
<br>हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ। | <br>हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ। | ||
− | <br>सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस | + | <br>सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥१७८(ख)॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर | + | <br>रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥ |
− | <br>अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति | + | <br>अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥ |
− | <br>दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि | + | <br>दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥ |
− | <br>देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए | + | <br>देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥ |
− | <br>फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ | + | <br>फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥ |
− | <br>सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन | + | <br>सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥ |
− | <br>जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर | + | <br>जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥ |
− | <br>एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै | + | <br>एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ। |
− | <br>मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख | + | <br>मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥१७९॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि | + | <br>सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥ |
− | <br>नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ | + | <br>नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥ |
− | <br>अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग | + | <br>अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥ |
− | <br>करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर | + | <br>करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥ |
− | <br>जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट | + | <br>जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥ |
− | <br>समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर | + | <br>समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥ |
− | <br>बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग | + | <br>बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥ |
− | <br>जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन | + | <br>जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय। |
− | <br>एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट | + | <br>एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥१८०॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
<br> | <br> | ||
− | <br>कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न | + | <br>कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥ |
− | <br>दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन | + | <br>दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥ |
− | <br>सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर | + | <br>सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती॥ |
− | <br>सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद | + | <br>सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध | + | <br>सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥ |
− | <br>ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं | + | <br>ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥ |
− | <br>तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब | + | <br>तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥ |
− | <br>द्विजभोजन मख होम | + | <br>द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ। |
− | <br>तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति | + | <br>तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥१८१॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
<br> | <br> | ||
− | <br>मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु | + | <br>मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर | + | <br>जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥ |
− | <br>तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन | + | <br>तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥ |
− | <br>एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर | + | <br>एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥ |
− | <br>चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर | + | <br>चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी॥ |
− | <br>रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि | + | <br>रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥ |
− | <br>दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन | + | <br>दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥ |
− | <br>पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि | + | <br>पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥ |
− | <br>रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न | + | <br>रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा॥ |
− | <br>रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब | + | <br>रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥ |
− | <br>किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं | + | <br>किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥ |
− | <br>ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर | + | <br>ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥ |
− | <br>आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन | + | <br>आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र। |
− | <br>मंडलीक मनि रावन राज करइ निज | + | <br>मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥१८२(ख)॥ |
<br>देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि। | <br>देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि। | ||
− | <br>जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर | + | <br>जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥१८२ख॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
<br> | <br> | ||
− | <br>इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि | + | <br>इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥ |
− | <br>प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो | + | <br>प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥ |
− | <br>देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव | + | <br>देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥ |
− | <br>करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि | + | <br>करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥ |
− | <br>जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद | + | <br>जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥ |
− | <br>जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि | + | <br>जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥ |
− | <br>सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न | + | <br>सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥ |
− | <br>नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद | + | <br>नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥ |
− | <br> | + | <br>छं०-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा। |
− | <br>आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ | + | <br>आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥ |
<br>अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना। | <br>अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना। | ||
− | <br>तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद | + | <br>तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं। |
− | <br>हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि | + | <br>हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥१८३॥ |
<br>मासपारायण, छठा विश्राम | <br>मासपारायण, छठा विश्राम | ||
− | <br>बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन | + | <br>बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥ |
− | <br>मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं | + | <br>मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥ |
− | <br>जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब | + | <br>जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥ |
− | <br>अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा | + | <br>अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥ |
− | <br>गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक | + | <br>गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥ |
− | <br>सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय | + | <br>सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥ |
− | <br>धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि | + | <br>धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥ |
− | <br>निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न | + | <br>निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥ |
− | <br> | + | <br>छं०-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका। |
− | <br>सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय | + | <br>सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥ |
<br>ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। | <br>ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। | ||
− | <br>जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर | + | <br>जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु। |
− | <br>जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन | + | <br>जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥१८४॥ |
− | <br>बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ | + | <br>बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥ |
− | <br>पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु | + | <br>पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥ |
− | <br>जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं | + | <br>जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥ |
− | <br>तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक | + | <br>तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥ |
− | <br>हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं | + | <br>हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥ |
− | <br>देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु | + | <br>देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥ |
− | <br>अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि | + | <br>अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥ |
− | <br>मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म | + | <br>मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर। |
− | <br>अस्तुति करत जोरि कर सावधान | + | <br>अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥१८५॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br> | + | <br>छं०-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता। |
− | <br>गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय | + | <br>गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥ |
<br> | <br> | ||
<br>पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। | <br>पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। | ||
− | <br>जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह | + | <br>जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥ |
<br>जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा। | <br>जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा। | ||
− | <br>अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित | + | <br>अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥ |
<br>जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा। | <br>जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा। | ||
− | <br>निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति | + | <br>निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥ |
<br>जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। | <br>जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। | ||
− | <br>सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न | + | <br>सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥ |
<br>जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा। | <br>जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा। | ||
− | <br>मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर | + | <br>मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥ |
<br>सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना। | <br>सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना। | ||
− | <br>जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो | + | <br>जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥ |
<br>भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा। | <br>भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा। | ||
− | <br>मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद | + | <br>मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह। |
− | <br>गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक | + | <br>गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥१८६॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर | + | <br>जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥ |
− | <br>अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस | + | <br>अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥ |
− | <br>कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर | + | <br>कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥ |
− | <br>ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट | + | <br>ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥ |
− | <br>तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ | + | <br>तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥ |
− | <br>नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत | + | <br>नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥ |
− | <br>हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव | + | <br>हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥ |
− | <br>गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय | + | <br>गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥ |
− | <br>तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ | + | <br>तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ। |
− | <br>बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु | + | <br>बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
<br>गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा । | <br>गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा । | ||
− | <br>जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न | + | <br>जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥ |
− | <br>बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह | + | <br>बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥ |
− | <br>गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं | + | <br>गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥ |
− | <br>गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि | + | <br>गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥ |
− | <br>यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं | + | <br>यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥ |
− | <br>अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ | + | <br>अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥ |
− | <br>धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति | + | <br>धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत। |
− | <br>पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल | + | <br>पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत | + | <br>एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥ |
− | <br>गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय | + | <br>गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥ |
− | <br>निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि | + | <br>निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥ |
− | <br>धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय | + | <br>धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥ |
− | <br>सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य | + | <br>सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥ |
− | <br>भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर | + | <br>भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥ |
− | <br>जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध | + | <br>जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥ |
− | <br>यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग | + | <br>यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥ |
− | <br>परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ | + | <br>परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥१८९॥ |
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− | <br>तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि | + | <br>तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई॥ |
− | <br>अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर | + | <br>अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥ |
− | <br>कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि | + | <br>कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥ |
− | <br>कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न | + | <br>कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥ |
− | <br>एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख | + | <br>एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥ |
− | <br>जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति | + | <br>जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥ |
− | <br>मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की | + | <br>मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥ |
− | <br>सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर | + | <br>सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। |
− | <br>चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम | + | <br>चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित | + | <br>नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥ |
− | <br>मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक | + | <br>मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥ |
− | <br>सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन | + | <br>सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥ |
− | <br>बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल | + | <br>बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥ |
− | <br>सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि | + | <br>सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥ |
− | <br>गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब | + | <br>गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥ |
− | <br>बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी | + | <br>बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥ |
− | <br>अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज | + | <br>अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम। |
− | <br>जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक | + | <br>जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥१९१॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br> | + | <br>छं०-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। |
− | <br>हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप | + | <br>हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥ |
<br>लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। | <br>लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। | ||
− | <br>भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु | + | <br>भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥ |
<br>कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता। | <br>कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता। | ||
− | <br>माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान | + | <br>माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥ |
<br>करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता। | <br>करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता। | ||
− | <br>सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट | + | <br>सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥ |
<br>ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। | <br>ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। | ||
− | <br>मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न | + | <br>मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै॥ |
<br>उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै। | <br>उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै। | ||
− | <br>कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम | + | <br>कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥ |
<br>माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा। | <br>माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा। | ||
− | <br>कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम | + | <br>कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥ |
<br>सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। | <br>सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। | ||
− | <br>यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं | + | <br>यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। |
− | <br>निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो | + | <br>निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥१९२॥ |
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− | <br>सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब | + | <br>सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी॥ |
− | <br>हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल | + | <br>हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥ |
− | <br>दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद | + | <br>दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥ |
− | <br>परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति | + | <br>परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥ |
− | <br>जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु | + | <br>जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥ |
− | <br>परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु | + | <br>परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥ |
− | <br>गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित | + | <br>गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥ |
− | <br>अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न | + | <br>अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह। |
− | <br>हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ | + | <br>हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥१९३॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति | + | <br>ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥ |
− | <br>सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब | + | <br>सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥ |
− | <br>बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि | + | <br>बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई॥ |
− | <br>कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप | + | <br>कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥ |
− | <br>करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि | + | <br>करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥ |
− | <br>मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं | + | <br>मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥ |
− | <br>सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं | + | <br>सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥ |
− | <br>मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच | + | <br>मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद। |
− | <br>हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर | + | <br>हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥१९४॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं | + | <br>कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥ |
− | <br>वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद | + | <br>वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥ |
− | <br>अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु | + | <br>अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥ |
− | <br>देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या | + | <br>देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥ |
− | <br>अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ | + | <br>अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥ |
− | <br>मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु | + | <br>मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥ |
− | <br>भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु | + | <br>भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी॥ |
− | <br>कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न | + | <br>कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ। |
− | <br>रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि | + | <br>रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥१९५॥ |
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− | <br>यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत | + | <br>यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥ |
− | <br>देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज | + | <br>देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥ |
− | <br>औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति | + | <br>औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥ |
− | <br>काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं | + | <br>काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥ |
− | <br>परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन | + | <br>परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥ |
− | <br>यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर | + | <br>यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥ |
− | <br>तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन | + | <br>तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥ |
− | <br>गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि | + | <br>गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस। |
− | <br>सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के | + | <br>सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥१९६॥ |
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<br> | <br> | ||
− | <br>कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु | + | <br>कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥ |
− | <br>नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि | + | <br>नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥ |
− | <br>करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि | + | <br>करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥ |
− | <br>इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति | + | <br>इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥ |
− | <br>जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक | + | <br>जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥ |
− | <br>सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक | + | <br>सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥ |
− | <br>बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस | + | <br>बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥ |
− | <br>जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद | + | <br>जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार। |
− | <br>गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम | + | <br>गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥१९७॥ |
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− | <br>धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत | + | <br>धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥ |
− | <br>मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख | + | <br>मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना॥ |
− | <br>बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति | + | <br>बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥ |
− | <br>भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति | + | <br>भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥ |
− | <br>स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन | + | <br>स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥ |
− | <br>चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर | + | <br>चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥ |
− | <br>हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर | + | <br>हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥ |
− | <br>कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय | + | <br>कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद। |
− | <br>सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के | + | <br>सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥१९८॥ |
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− | <br>काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद | + | <br>काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥ |
− | <br>अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु | + | <br>अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥ |
− | <br>रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन | + | <br>रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥ |
− | <br>कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि | + | <br>कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा॥ |
− | <br>भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा | + | <br>भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥ |
− | <br>उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन | + | <br>उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥ |
− | <br>कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि | + | <br>कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥ |
− | <br>दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै | + | <br>दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥ |
− | <br>सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे | + | <br>सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥ |
− | <br>चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु | + | <br>चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥ |
− | <br>पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि | + | <br>पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥ |
− | <br>रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि | + | <br>रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत। |
− | <br>दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित | + | <br>दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥१९९॥ |
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− | <br>एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह | + | <br>एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥ |
− | <br>जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट | + | <br>जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥ |
− | <br>रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन | + | <br>रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥ |
− | <br>जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय | + | <br>जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥ |
− | <br>भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु | + | <br>भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥ |
− | <br>मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं | + | <br>मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥ |
− | <br>एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख | + | <br>एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥ |
− | <br>लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि | + | <br>लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान। |
− | <br>सुत सनेह बस माता बालचरित कर | + | <br>सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥२००॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ | + | <br>एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह | + | <br>निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥ |
− | <br>करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक | + | <br>करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥ |
− | <br>बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत | + | <br>बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥ |
− | <br>गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि | + | <br>गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥ |
− | <br>बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न | + | <br>बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥ |
− | <br>इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन | + | <br>इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥ |
− | <br>देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर | + | <br>देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड। |
− | <br>रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि | + | <br>रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ २०१॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि | + | <br>अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥ |
− | <br>काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न | + | <br>काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥ |
− | <br>देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर | + | <br>देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥ |
− | <br>देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ | + | <br>देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥ |
− | <br>तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु | + | <br>तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥ |
− | <br>बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप | + | <br>बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥ |
− | <br>अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि | + | <br>अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥ |
− | <br>हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु | + | <br>हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥ |
− | <br>अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया | + | <br>अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ २०२॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ | + | <br>बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥ |
− | <br>कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन | + | <br>कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥ |
− | <br>चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु | + | <br>चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥ |
− | <br>परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ | + | <br>परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥ |
− | <br>मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु | + | <br>मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥ |
− | <br>भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल | + | <br>भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥ |
− | <br>कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं | + | <br>कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥ |
− | <br>निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि | + | <br>निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥ |
− | <br>धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद | + | <br>धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ। |
− | <br>भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन | + | <br>भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥२०३॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति | + | <br>बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥ |
− | <br>जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए | + | <br>जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥ |
− | <br>भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु | + | <br>भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥ |
− | <br>गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब | + | <br>गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥ |
− | <br>जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक | + | <br>जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥ |
− | <br>बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल | + | <br>बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥ |
− | <br>करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर | + | <br>करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥ |
− | <br>जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग | + | <br>जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल। |
− | <br>प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम | + | <br>प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥२०४॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं | + | <br>बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥ |
− | <br>पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं | + | <br>पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥ |
− | <br>जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक | + | <br>जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥ |
− | <br>अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या | + | <br>अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥ |
− | <br>जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ | + | <br>जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥ |
− | <br>बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह | + | <br>बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥ |
− | <br>प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं | + | <br>प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥ |
− | <br>आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन | + | <br>आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप। |
− | <br>भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र | + | <br>भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥२०५॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन | + | <br>यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥ |
− | <br>बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम | + | <br>बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी॥ |
− | <br>जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि | + | <br>जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥ |
− | <br>देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख | + | <br>देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥ |
− | <br>गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर | + | <br>गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी॥ |
− | <br>तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि | + | <br>तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥ |
− | <br>एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ | + | <br>एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई॥ |
− | <br>ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि | + | <br>ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार। |
− | <br>करि मज्जन सरऊ जल गए भूप | + | <br>करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥२०६॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र | + | <br>मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥ |
− | <br>करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि | + | <br>करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥ |
− | <br>चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं | + | <br>चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥ |
− | <br>बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति | + | <br>बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥ |
− | <br>पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह | + | <br>पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥ |
− | <br>भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि | + | <br>भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥ |
− | <br>तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु | + | <br>तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥ |
− | <br>केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ | + | <br>केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥ |
− | <br>असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप | + | <br>असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥ |
− | <br>अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब | + | <br>अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान। |
− | <br>धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति | + | <br>धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥२०७॥ |
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− | <br>सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति | + | <br>सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥ |
− | <br>चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु | + | <br>चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥ |
− | <br>मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु | + | <br>मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥ |
− | <br>देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक | + | <br>देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही॥ |
− | <br>सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ | + | <br>सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥ |
− | <br>कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम | + | <br>कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥ |
− | <br>सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि | + | <br>सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥ |
− | <br>तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ | + | <br>तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥ |
− | <br>अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति | + | <br>अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥ |
− | <br>मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं | + | <br>मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस। |
− | <br>जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद | + | <br>जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥२०८(क)॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन॥ |
− | <br>कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन | + | <br>कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥२०८(ख) |
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− | <br>अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम | + | <br>अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥ |
− | <br>कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ | + | <br>कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥ |
− | <br>स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि | + | <br>स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई॥ |
− | <br>प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु | + | <br>प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥ |
− | <br>चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि | + | <br>चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥ |
− | <br>एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद | + | <br>एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥ |
− | <br>तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या | + | <br>तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥ |
− | <br>जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज | + | <br>जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि। |
− | <br>कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित | + | <br>कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥२०९॥ |
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− | <br>प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह | + | <br>प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥ |
− | <br>होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं | + | <br>होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥ |
− | <br>सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा | + | <br>सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥ |
− | <br>बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर | + | <br>बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥ |
− | <br>पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु | + | <br>पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥ |
− | <br>मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि | + | <br>मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥ |
− | <br>तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर | + | <br>तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥ |
− | <br>भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु | + | <br>भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥ |
− | <br>तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ | + | <br>तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥ |
− | <br>धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के | + | <br>धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥ |
− | <br>आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ | + | <br>आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥ |
− | <br>पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा | + | <br>पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। |
− | <br>चरन कमल रज चाहति कृपा करहु | + | <br>चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥२१०॥ |
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− | <br> | + | <br>छं०-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही। |
− | <br>देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि | + | <br>देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥ |
<br>अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही। | <br>अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही। | ||
− | <br>अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार | + | <br>अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥ |
<br>धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई। | <br>धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई। | ||
− | <br>अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय | + | <br>अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥ |
<br>मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। | <br>मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। | ||
− | <br>राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं | + | <br>राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥ |
<br>मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। | <br>मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। | ||
− | <br>देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर | + | <br>देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥ |
<br>बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना। | <br>बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना। | ||
− | <br>पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै | + | <br>पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥ |
<br>जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी। | <br>जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी। | ||
− | <br>सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल | + | <br>सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥ |
<br>एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। | <br>एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। | ||
− | <br>जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद | + | <br>जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल। |
− | <br>तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट | + | <br>तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥२११॥ |
<br>मासपारायण, सातवाँ विश्राम | <br>मासपारायण, सातवाँ विश्राम | ||
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− | <br>चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि | + | <br>चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥ |
− | <br>गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि | + | <br>गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥ |
− | <br>तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि | + | <br>तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥ |
− | <br>हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर | + | <br>हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥ |
− | <br>पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत | + | <br>पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥ |
− | <br>बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि | + | <br>बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥ |
− | <br>गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन | + | <br>गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥ |
− | <br>बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा | + | <br>बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास। |
− | <br>फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ | + | <br>फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥ |
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− | <br>बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ | + | <br>बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥ |
− | <br>चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर | + | <br>चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥ |
− | <br>धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै | + | <br>धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥ |
− | <br>चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध | + | <br>चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥ |
− | <br>मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ | + | <br>मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥ |
− | <br>पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी | + | <br>पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥ |
− | <br>अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि | + | <br>अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥ |
− | <br>होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु | + | <br>होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति। |
− | <br>सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि | + | <br>सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥२१३॥ |
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− | <br>सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध | + | <br>सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥ |
− | <br>बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब | + | <br>बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥ |
− | <br>सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब | + | <br>सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥ |
− | <br>पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल | + | <br>पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥ |
− | <br>देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति | + | <br>देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥ |
− | <br>कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर | + | <br>कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥ |
− | <br>भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद | + | <br>भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥ |
− | <br>बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति | + | <br>बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति। |
− | <br>चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि | + | <br>चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥२१४॥ |
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− | <br>कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित | + | <br>कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥ |
− | <br>बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ | + | <br>बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥ |
− | <br>कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि | + | <br>कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥ |
− | <br>तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन | + | <br>तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥ |
− | <br>स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित | + | <br>स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥ |
− | <br>उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट | + | <br>उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥ |
− | <br>भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित | + | <br>भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥ |
− | <br>मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु | + | <br>मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर। |
− | <br>बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा | + | <br>बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥२१५॥ |
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− | <br>कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल | + | <br>कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥ |
− | <br>ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ | + | <br>ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥ |
− | <br>सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद | + | <br>सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥ |
− | <br>ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु | + | <br>ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥ |
− | <br>इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन | + | <br>इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥ |
− | <br>कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ | + | <br>कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥ |
− | <br>ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि | + | <br>ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥ |
− | <br>रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस | + | <br>रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम। |
− | <br>मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर | + | <br>मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥२१६॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
<br> | <br> | ||
− | <br>मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य | + | <br>मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ॥ |
− | <br>सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद | + | <br>सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥ |
− | <br>इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव | + | <br>इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥ |
− | <br>सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज | + | <br>सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥ |
− | <br>पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक | + | <br>पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥ |
− | <br>म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर | + | <br>म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥ |
− | <br>सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह | + | <br>सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥ |
− | <br>करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा | + | <br>करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु। |
− | <br>बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि | + | <br>बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥२१७॥ |
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− | <br>लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ | + | <br>लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥ |
− | <br>प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं | + | <br>प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥ |
− | <br>राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ | + | <br>राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥ |
− | <br>परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन | + | <br>परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥ |
− | <br>नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न | + | <br>नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥ |
− | <br>जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै | + | <br>जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ॥ |
− | <br>सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु | + | <br>सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥ |
− | <br>धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक | + | <br>धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ। |
− | <br>करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन | + | <br>करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥२१८॥ |
<br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम | <br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम | ||
<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम | <br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम | ||
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख | + | <br>मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥ |
− | <br>बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु | + | <br>बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥ |
− | <br>पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत | + | <br>पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥ |
− | <br>तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर | + | <br>तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥ |
− | <br>केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि | + | <br>केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥ |
− | <br>सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय | + | <br>सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥ |
− | <br>कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु | + | <br>कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥ |
− | <br>चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु | + | <br>चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस। |
− | <br>नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल | + | <br>नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥२१९॥ |
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− | <br>देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह | + | <br>देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥ |
− | <br>धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन | + | <br>धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी॥ |
− | <br>निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल | + | <br>निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥ |
− | <br>जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप | + | <br>जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥ |
− | <br>कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि | + | <br>कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥ |
− | <br>सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति | + | <br>सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥ |
− | <br>बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच | + | <br>बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥ |
− | <br>अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ | + | <br>अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम । |
− | <br>अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत | + | <br>अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥२२०॥ |
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− | <br>कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप | + | <br>कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥ |
− | <br>कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु | + | <br>कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥ |
− | <br>ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल | + | <br>ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥ |
− | <br>मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर | + | <br>मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥ |
− | <br>स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु | + | <br>स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥ |
− | <br>कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक | + | <br>कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥ |
− | <br>गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के | + | <br>गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥ |
− | <br>लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा | + | <br>लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि। |
− | <br>आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब | + | <br>आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥२२१॥ |
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− | <br>देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु | + | <br>देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥ |
− | <br>जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ | + | <br>जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥ |
− | <br>कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर | + | <br>कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥ |
− | <br>सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि | + | <br>सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥ |
− | <br>कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित | + | <br>कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥ |
− | <br>तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ | + | <br>तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥ |
− | <br>जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब | + | <br>जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥ |
− | <br>सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि | + | <br>सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि। |
− | <br>यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत | + | <br>यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥२२२॥ |
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− | <br>बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं | + | <br>बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥ |
− | <br>कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात | + | <br>कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥ |
− | <br>सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु | + | <br>सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥ |
− | <br>सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु | + | <br>सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥ |
− | <br>परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ | + | <br>परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥ |
− | <br>सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न | + | <br>सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥ |
− | <br>जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ | + | <br>जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥ |
− | <br>तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु | + | <br>तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद। |
− | <br>जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ | + | <br>जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥२२३॥ |
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− | <br>पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि | + | <br>पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥ |
− | <br>अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर | + | <br>अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥ |
− | <br>चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं | + | <br>चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला॥ |
− | <br>तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली | + | <br>तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥ |
− | <br>कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ | + | <br>कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥ |
− | <br>तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन | + | <br>तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥ |
− | <br>जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल | + | <br>जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥ |
− | <br>पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं | + | <br>पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात। |
− | <br>तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ | + | <br>तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥२२४॥ |
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− | <br>सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत | + | <br>सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥ |
− | <br>निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ | + | <br>निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥ |
− | <br>राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर | + | <br>राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥ |
− | <br>लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन | + | <br>लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥ |
− | <br>भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष | + | <br>भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥ |
− | <br>कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन | + | <br>कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥ |
− | <br>जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत | + | <br>जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥ |
− | <br>कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक | + | <br>कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ। |
− | <br>गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु | + | <br>गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥२२५॥ |
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− | <br>निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु | + | <br>निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥ |
− | <br>कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम | + | <br>कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥ |
− | <br>मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ | + | <br>मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥ |
− | <br>जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग | + | <br>जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥ |
− | <br>तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत | + | <br>तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥ |
− | <br>बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब | + | <br>बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥ |
− | <br>चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु | + | <br>चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥ |
− | <br>पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद | + | <br>पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥ |
− | <br>गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु | + | <br>गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥२२६॥ |
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− | <br>सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर | + | <br>सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥ |
− | <br>समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ | + | <br>समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥ |
− | <br>भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही | + | <br>भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥ |
− | <br>लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि | + | <br>लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥ |
− | <br>नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख | + | <br>नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥ |
− | <br>चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल | + | <br>चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥ |
− | <br>मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र | + | <br>मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥ |
− | <br>बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत | + | <br>बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत। |
− | <br>परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख | + | <br>परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥२२७॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित | + | <br>चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥ |
− | <br>तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि | + | <br>तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥ |
− | <br>संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर | + | <br>संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥ |
− | <br>सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु | + | <br>सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥ |
− | <br>मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि | + | <br>मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥ |
− | <br>पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु | + | <br>पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥ |
− | <br>एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन | + | <br>एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥ |
− | <br>तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं | + | <br>तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन। |
− | <br>कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु | + | <br>कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥२२८॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति | + | <br>देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥ |
− | <br>स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु | + | <br>स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥ |
− | <br>सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा | + | <br>सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥ |
− | <br>एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए | + | <br>एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥ |
− | <br>जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर | + | <br>जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥ |
− | <br>बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन | + | <br>बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥ |
− | <br>तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन | + | <br>तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥ |
− | <br>चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न | + | <br>चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥ |
− | <br>चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी | + | <br>चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥२२९॥ |
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− | <br>कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ | + | <br>कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥ |
− | <br>मानहुँ मदन दुंदुभी | + | <br>मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥ |
− | <br>अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन | + | <br>अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥ |
− | <br>भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे | + | <br>भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥ |
− | <br>देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न | + | <br>देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥ |
− | <br>जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि | + | <br>जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥ |
− | <br>सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु | + | <br>सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥ |
− | <br>सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं | + | <br>सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि। |
− | <br>बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय | + | <br>बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥२३०॥ |
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− | <br>तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन | + | <br>तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥ |
− | <br>पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ | + | <br>पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥ |
− | <br>जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु | + | <br>जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥ |
− | <br>सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु | + | <br>सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥ |
− | <br>रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न | + | <br>रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥ |
− | <br>मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न | + | <br>मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥ |
− | <br>जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु | + | <br>जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥ |
− | <br>मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग | + | <br>मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान। |
− | <br>मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव | + | <br>मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥२३१॥ |
<br>–*–*– | <br>–*–*– | ||
− | <br>चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु | + | <br>चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥ |
− | <br>जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित | + | <br>जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥ |
− | <br>लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर | + | <br>लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥ |
− | <br>देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि | + | <br>देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥ |
− | <br>थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं | + | <br>थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥ |
− | <br>अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव | + | <br>अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥ |
− | <br>लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट | + | <br>लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥ |
− | <br>जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन | + | <br>जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ। |
− | <br>निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल | + | <br>निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥२३२॥ |
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22:50, 14 सितम्बर 2006 का अवतरण
कवि: तुलसीदास
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बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
दो०-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
–*–*–
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
–*–*–
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
दो०-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
–*–*–
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
दो०-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥११०॥
–*–*–
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥
–*–*–
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥
–*–*–
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥
–*–*–
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
दो०-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥११४॥
–*–*–
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥
–*–*–
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
दो०-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥
–*–*–
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
दो०-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥
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कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
दो०-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥
–*–*–
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
दो०-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥१२०(क)॥
नवान्हपारायन,पहला विश्राम
मासपारायण, चौथा विश्राम
सो०-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥१२०(ख)॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥१२०(ग)॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥१२०(घ॥
–*–*–
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
दो०-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥
–*–*–
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
दो०-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२ ।
–*–*–
मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
दो०-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥
–*–*–
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४(क)॥
सो०-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥१२४(ख)॥
–*–*–
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
दो०-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥
–*–*–
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
–*–*–
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
दो०-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥
–*–*–
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
दो०-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
–*–*–
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
दो०-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥
–*–*–
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
दो०-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥
–*–*–
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
दो०-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥
–*–*–
हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥
–*–*–
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥१३३॥
–*–*–
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥
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जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥
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पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥
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परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
दो०-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥१३७॥
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जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥१३८॥
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हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
दो०-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥१३९॥
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एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
सो०-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥१४०॥
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
दो०-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥
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स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
सो०-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
दो०-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥१४३॥
–*–*–
करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
दो०-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥१४४॥
–*–*–
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
दो०-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥१४५॥
–*–*–
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
दो०-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥
–*–*–
सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
दो०-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥
–*–*–
पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
दो०-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥
–*–*–
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
दो०-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥
–*–*–
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥
–*–*–
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥
सो०-तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥१५१॥
इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥
दो०-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥१५२॥
मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम
–*–*–
सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥
भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
दो०-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥१५३॥
–*–*–
नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥
बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई॥
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥
दो०-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥१५४॥
–*–*–
भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥
भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥
दो०-जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग॥१५५॥
–*–*–
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥
दो०-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥१५६॥
–*–*–
आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
दो०-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥
–*–*–
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥
राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥
–*–*–
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥
दो०- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥१५९(क)॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥१५९(ख)॥
–*–*–
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
दो०-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति॥१६०॥
–*–*–
कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥
दो०-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥१६१(क)॥
सो०-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥१६१(ख)
–*–*–
तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥
दो०-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥१६२॥
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जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥
सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
सो०-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥
दो०-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥१६४॥
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कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥
दो०-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥१६५॥
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तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥
दो०-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ॥१६६॥
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सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥
मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥
दो०- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥१६७॥
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जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥
दो०-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब जेवनार॥१६८॥
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एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥
तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥
गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥
दो०-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥१६९॥
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सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥
कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥
तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥
दो०-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥१७०॥
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तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥
भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥
दो०-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥१७१॥
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आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
दो०-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥
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उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥
दो०-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥१७३॥
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छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
दो०-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥१७४॥
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अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई॥
जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।१७५॥
–*–*–
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥
दो०-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥१७६॥
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कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥
दो०-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥१७७॥
–*–*–
तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
दो०-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥१७८(क)॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥१७८(ख)॥
–*–*–
रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥
दो०-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥१७९॥
–*–*–
सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥
दो०-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥१८०॥
–*–*–
कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
दो०-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥१८१॥
–*–*–
मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
दो०-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥१८२(ख)॥
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥१८२ख॥
–*–*–
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥
छं०-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
सो०-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥१८३॥
मासपारायण, छठा विश्राम
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥
छं०-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
सो०-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥१८४॥
बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥
दो०-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥१८५॥
–*–*–
छं०-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥
दो०-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥१८६॥
–*–*–
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
दो०-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥
–*–*–
गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥
दो०-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥
–*–*–
एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥
दो०-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥१८९॥
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तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई॥
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥
मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥
दो०-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥
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नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥
दो०-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥१९१॥
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छं०-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥
दो०-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥१९२॥
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सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥
दो०-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥१९३॥
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ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई॥
कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥
करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥
सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥
दो०-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥१९४॥
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कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥
दो०-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥१९५॥
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यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥
औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥
परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥
दो०-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥१९६॥
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कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥
करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
दो०-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥१९७॥
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धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना॥
बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥
दो०-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥१९८॥
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काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा॥
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा॥
दो०-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥१९९॥
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एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥
दो०-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥२००॥
–*–*–
एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥
गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥
दो०-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ २०१॥
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अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥
दो०-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ २०२॥
–*–*–
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥
मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥
धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥
दो०-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥२०३॥
–*–*–
बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥
करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥
दो०- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥२०४॥
–*–*–
बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥
जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥
दो०-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥२०५॥
–*–*–
यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी॥
जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी॥
तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥
एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना॥
दो०-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥२०६॥
–*–*–
मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥
पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥
तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥
असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
दो०-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥२०७॥
–*–*–
सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥
मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही॥
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥
दो०-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥२०८(क)॥
सो०-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन॥
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥२०८(ख)
–*–*–
अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥
दो०-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥२०९॥
–*–*–
प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥
दो०-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥२१०॥
–*–*–
छं०-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥
दो०-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥२११॥
मासपारायण, सातवाँ विश्राम
–*–*–
चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥
पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥
दो०-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥
–*–*–
बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥
धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥
मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥
दो०-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥२१३॥
–*–*–
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥
देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥
दो०-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥२१४॥
–*–*–
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
दो०-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥२१५॥
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कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥
सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥
दो०-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥२१६॥
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मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥
दो०-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥२१७॥
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लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥
दो०-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥२१८॥
मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
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मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥
केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी॥
दो०-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥२१९॥
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देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी॥
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥
दो०-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥२२०॥
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कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥
ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥
दो०-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥२२१॥
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देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥
कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥
दो०-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥२२२॥
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बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥
सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥
परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी॥
दो०-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥२२३॥
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पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥
दो०-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥२२४॥
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सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥
राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥
भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥
दो०-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥२२५॥
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निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥
दो०-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥२२६॥
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सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥
भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥
नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥
दो०-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥२२७॥
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चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥
संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥
एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥
दो०-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥२२८॥
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देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥
तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥
दो०-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥२२९॥
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कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥
सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥
दो०-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥२३०॥
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तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥
दो०-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥२३१॥
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चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥
दो०-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥२३२॥
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