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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक:''' है धुएँ में सदी<br>
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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक:''' जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है <br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[यश मालवीय]]
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[केदारनाथ अग्रवाल]]
 
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है धुएँ में सदी
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:जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है  
उसको आवाज़ दो
+
:तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
बन्द घड़ियों को कोई
+
:जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
                घड़ीसाज दो
+
:जो रवि के रथ का घोड़ा है
                साँस को ख़ुशबुओं का
+
:वह जन मारे नहीं मरेगा
                वजीफ़ा तो दो
+
:नहीं मरेगा
                इस उदासी को कोई
+
                लतीफ़ा तो दो
+
:जो जीवन की आग जला कर आग बना है
दोस्ती के कई राज़ लो,
+
:फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
              राज़ दो
+
:जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
                खिड़कियाँ बन्द हैं
+
:जो युग के रथ का घोड़ा है
                खिड़कियाँ खोल दो
+
:वह जन मारे नहीं मरेगा
                है जो गुमसुम उसे
+
:नहीं मरेगा
                गीत के बोल दो
+
वक़्त के हाथ फिर से
+
नया साज़ दो
+
                कब से देखा नहीं
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                कहकशाँ की तरफ़
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                मुँह करो तो कभी
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                आसमाँ की तरफ़
+
तितलियों को भी
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रंगों का कोलाज दो ।
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04:45, 24 जनवरी 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
  रचनाकार: केदारनाथ अग्रवाल

:जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है 
:तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है 
:जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
:जो रवि के रथ का घोड़ा है
:वह जन मारे नहीं मरेगा
:नहीं मरेगा
 
:जो जीवन की आग जला कर आग बना है
:फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
:जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
:जो युग के रथ का घोड़ा है
:वह जन मारे नहीं मरेगा
:नहीं मरेगा