"बाल काण्ड / भाग ३ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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− | + | |रचनाकार=तुलसीदास | |
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− | + | <br>चौ०-जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥ | |
− | + | <br>गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥ | |
− | <br>चौ०- | + | <br>पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥ |
− | <br> | + | <br>बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥ |
− | <br> | + | <br>बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥ |
− | <br> | + | <br>हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥ |
− | <br> | + | <br>दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥ |
− | <br> | + | <br>अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥ |
− | <br> | + | <br>छं०-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो। |
− | <br> | + | <br>का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो। |
− | <br> | + | <br>पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥ |
+ | <br>दो०-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु। | ||
+ | <br>छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥ | ||
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− | <br> | + | <br>चौ-बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥ |
− | <br>बहुरि | + | <br>जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥ |
− | <br> | + | <br>करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥ |
− | <br> | + | <br>बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥ |
− | <br> | + | <br>कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥ |
− | <br>पुनि | + | <br>भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥ |
− | <br> | + | <br>पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥ |
− | <br> | + | <br>सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>छं०-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं। |
− | <br> | + | <br>फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥ |
+ | <br>जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले। | ||
+ | <br>सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥ | ||
+ | <br>दो०-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु। | ||
+ | <br>बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥१०२॥ | ||
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− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥ |
− | <br> | + | <br>आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥ |
− | <br> | + | <br>जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥ |
− | <br> | + | <br>जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥ |
− | <br> | + | <br>करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥ |
− | <br> | + | <br>हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥ |
− | <br> | + | <br>तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥ |
− | <br> | + | <br>आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>छं०-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा। |
− | <br> | + | <br>तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥ |
+ | <br>यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। | ||
+ | <br>कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥ | ||
+ | <br>दो०-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। | ||
+ | <br>बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥१०३॥ | ||
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− | <br> | + | <br>संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥ |
− | + | <br>बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥ | |
− | <br> | + | <br>प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥ |
− | <br> | + | <br>अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥ |
− | <br> | + | <br>सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥ |
− | <br> | + | <br>बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥ |
− | <br> | + | <br>सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥ |
− | <br> | + | <br>पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार। |
− | + | <br>सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥ | |
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− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥ |
− | <br>राम | + | <br>सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥ |
− | <br> | + | <br>राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥ |
− | <br> | + | <br>तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥ |
− | <br> | + | <br>सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥ |
− | <br> | + | <br>जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥ |
− | <br> | + | <br>प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥ |
− | <br> | + | <br>परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद। |
− | <br> | + | <br>बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥१०५॥ |
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+ | <br>हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥ | ||
+ | <br>तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥ | ||
+ | <br>त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥ | ||
+ | <br>एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥ | ||
+ | <br>निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥ | ||
+ | <br>कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥ | ||
+ | <br>तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥ | ||
+ | <br>भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥ | ||
+ | <br>दो०-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल। | ||
+ | <br>नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥ | ||
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− | <br> | + | <br>बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥ |
− | <br> | + | <br>पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥ |
− | <br> | + | <br>जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥ |
− | <br> | + | <br>बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥ |
− | <br> | + | <br>पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥ |
− | <br> | + | <br>कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥ |
− | <br> | + | <br>बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥ |
− | <br> | + | <br>चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥ |
− | <br> | + | <br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥ |
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− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥ |
− | + | <br>तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥ | |
− | <br> | + | <br>जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥ |
− | <br> | + | <br>ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥ |
− | <br> | + | <br>प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥ |
− | <br> | + | <br>सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥ |
− | + | <br>तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥ | |
− | <br> | + | <br>रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि। |
− | <br> | + | <br>देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥ |
− | <br>दो०- | + | |
− | <br> | + | |
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− | <br> | + | <br>चौ०-जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥ |
− | <br> | + | <br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥ |
+ | <br>मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥ | ||
+ | <br>तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥ | ||
+ | <br>अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥ | ||
+ | <br>प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥ | ||
+ | <br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥ | ||
+ | <br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥ | ||
+ | <br>दो०-बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि। | ||
+ | <br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥ | ||
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥ |
− | <br> | + | <br>गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥ |
− | <br> | + | <br>अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥ |
− | <br> | + | <br>प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥ |
− | <br> | + | <br>पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥ |
− | <br> | + | <br>कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥ |
− | <br> | + | <br>बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥ |
− | <br> | + | <br>राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम। |
− | <br> | + | <br>प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥११०॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥ |
− | <br> | + | <br>भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥ |
− | <br> | + | <br>औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥ |
− | <br> | + | <br>जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥ |
− | <br> | + | <br>तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥ |
− | <br> | + | <br>प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥ |
− | <br> | + | <br>हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥ |
− | <br> | + | <br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह। |
− | <br> | + | <br>रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ |
− | <br> | + | <br>जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥ |
− | <br> | + | <br>बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥ |
− | <br> | + | <br>मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥ |
− | <br> | + | <br>करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥ |
− | <br> | + | <br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥ |
− | <br> | + | <br>पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥ |
− | <br> | + | <br>तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं। |
− | <br> | + | <br>सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥ |
− | <br> | + | <br>जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥ |
− | <br> | + | <br>नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥ |
− | <br> | + | <br>ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥ |
− | <br> | + | <br>जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥ |
− | <br> | + | <br>जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥ |
− | <br> | + | <br>कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥ |
− | <br> | + | <br>गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि। |
− | <br> | + | <br>सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥ |
− | <br> | + | <br>रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥ |
− | <br> | + | <br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥ |
− | <br> | + | <br>जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥ |
− | <br> | + | <br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥ |
− | <br> | + | <br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥ |
− | <br> | + | <br>एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥ |
− | <br> | + | <br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। |
− | <br> | + | <br>पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥११४॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥ |
− | <br> | + | <br>लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥ |
− | <br> | + | <br>कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥ |
− | <br> | + | <br>मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥ |
− | <br> | + | <br>जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥ |
− | <br> | + | <br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥ |
− | <br> | + | <br>बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥ |
− | <br> | + | <br>जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥ |
− | <br>सो०- | + | <br>सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद। |
− | <br> | + | <br>सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥ |
− | <br> | + | <br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ |
− | <br> | + | <br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥ |
− | <br> | + | <br>जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥ |
− | <br> | + | <br>राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥ |
− | <br> | + | <br>सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥ |
− | <br> | + | <br>हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥ |
− | <br> | + | <br>राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥ |
− | <br> | + | <br>रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥ |
− | <br> | + | <br>जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥ |
− | <br> | + | <br>चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥ |
− | <br> | + | <br>उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥ |
− | <br> | + | <br>बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥ |
− | <br> | + | <br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥ |
− | <br> | + | <br>जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥ |
− | <br> | + | <br>जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि। |
− | <br> | + | <br>जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥ |
− | <br> | + | <br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥ |
− | <br> | + | <br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥ |
− | <br> | + | <br>आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥ |
− | <br> | + | <br>बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥ |
− | <br> | + | <br>आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ |
− | <br> | + | <br>तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥ |
− | <br> | + | <br>असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥ |
− | <br> | + | <br>सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥ |
− | <br> | + | <br>सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥ |
− | <br> | + | <br>बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥ |
− | <br> | + | <br>सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥ |
− | <br> | + | <br>राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥ |
− | <br> | + | <br>अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥ |
− | <br> | + | <br>सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥ |
− | <br> | + | <br>भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि। |
− | <br> | + | <br>बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥ |
− | <br> | + | <br>तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥ |
− | <br>सोइ | + | <br>नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥ |
− | <br> | + | <br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥ |
− | <br>सुनि | + | <br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥ |
− | <br> | + | <br>राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥ |
− | <br> | + | <br>नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥ |
− | <br> | + | <br>उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान |
− | <br> | + | <br>बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥१२०(क)॥ |
+ | <br>नवान्हपारायण,पहला विश्राम | ||
+ | <br>मासपारायण, चौथा विश्राम | ||
+ | <br>सो०-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल। | ||
+ | <br>कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥१२०(ख)॥ | ||
+ | <br>सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब। | ||
+ | <br>सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥१२०(ग)॥ | ||
+ | <br>हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित। | ||
+ | <br>मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥१२०(घ॥ | ||
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥ |
− | <br> | + | <br>हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥ |
− | <br> | + | <br>राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥ |
− | <br> | + | <br>तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥ |
− | <br> | + | <br>तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥ |
− | <br> | + | <br>जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥ |
− | <br> | + | <br>करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥ |
− | <br> | + | <br>तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। |
− | <br> | + | <br>जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥ |
− | <br> | + | <br>राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥ |
− | <br> | + | <br>जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥ |
− | <br> | + | <br>द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥ |
− | <br> | + | <br>बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥ |
− | <br> | + | <br>कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥ |
− | <br> | + | <br>बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥ |
− | <br> | + | <br>होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान। |
− | <br> | + | <br>कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥ |
− | <br> | + | <br>एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥ |
− | <br> | + | <br>कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥ |
− | <br> | + | <br>एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥ |
− | <br> | + | <br>एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥ |
− | <br> | + | <br>संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥ |
− | <br> | + | <br>परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥ |
− | + | <br>दो०-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥ | |
− | <br>दो०- | + | <br>जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥ |
− | <br> | + | |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥ |
− | <br> | + | <br>तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥ |
− | <br> | + | <br>एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥ |
− | <br> | + | <br>प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥ |
− | <br> | + | <br>नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥ |
− | <br> | + | <br>गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥ |
− | <br> | + | <br>कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥ |
− | <br> | + | <br>यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ। |
− | <br> | + | <br>जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४(क)॥ |
+ | <br>सो०-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु। | ||
+ | <br>भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥१२४(ख)॥ | ||
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥ |
− | <br> | + | <br>आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥ |
− | <br> | + | <br>निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥ |
− | <br> | + | <br>सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥ |
− | <br> | + | <br>मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥ |
− | <br> | + | <br>सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥ |
− | <br> | + | <br>सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥ |
− | <br> | + | <br>जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज। |
− | <br> | + | <br>छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥ |
− | <br> | + | <br>कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥ |
− | <br> | + | <br>चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥ |
− | <br> | + | <br>रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥ |
− | <br> | + | <br>करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥ |
− | <br> | + | <br>देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥ |
− | <br> | + | <br>काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥ |
− | <br> | + | <br>सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन। |
− | <br> | + | <br>गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०-काम | + | <br>चौ०-भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥ |
− | <br> | + | <br>नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥ |
− | <br> | + | <br>मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥ |
− | <br> | + | <br>सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥ |
− | <br> | + | <br>तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥ |
− | <br> | + | <br>मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥ |
− | <br> | + | <br>बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥ |
− | <br> | + | <br>तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान। |
− | <br> | + | <br>भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥ |
− | <br> | + | <br>संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥ |
− | <br> | + | <br>एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥ |
− | <br> | + | <br>छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥ |
− | <br> | + | <br>हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥ |
− | <br> | + | <br>बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥ |
− | <br> | + | <br>काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥ |
− | <br>अति | + | <br>अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान । |
− | <br> | + | <br>तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br> | + | चौ०-<br>सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥ |
− | <br> | + | <br>ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥ |
− | <br> | + | <br>नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥ |
− | <br> | + | <br>करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥ |
− | <br> | + | <br>बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥ |
− | <br> | + | <br>मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥ |
− | <br> | + | <br>तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥ |
− | <br> | + | <br>श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार। |
− | <br> | + | <br>श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥ |
− | <br> | + | <br>तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥ |
− | <br> | + | <br>सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥ |
− | <br> | + | <br>बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥ |
− | <br> | + | <br>सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥ |
− | <br> | + | <br>करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥ |
− | <br> | + | <br>मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥ |
− | <br> | + | <br>सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि। |
− | <br> | + | <br>कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥ |
<br> | <br> | ||
− | + | चौ०-<br>देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥ | |
− | <br> | + | <br>लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥ |
− | <br> | + | <br>जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥ |
− | <br> | + | <br>सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥ |
− | + | <br>लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥ | |
− | + | <br>सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥ | |
− | + | <br>करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥ | |
− | <br> | + | <br>जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल। |
− | <br> | + | <br>जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥ |
− | <br> | + | |
− | <br> | + | |
− | <br> | + | |
− | <br> | + | |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥ |
− | <br> | + | <br>मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥ |
− | <br> | + | <br>बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥ |
− | <br> | + | <br>प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥ |
− | <br> | + | <br>अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥ |
− | <br> | + | <br>आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥ |
− | <br> | + | <br>जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥ |
− | <br> | + | <br>निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥ |
− | <br>दो०- | + | <br>दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। |
− | <br> | + | <br>सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥ |
<br> | <br> | ||
− | <br>चौ०- | + | <br>चौ०-कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥ |
− | + | <br>एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥ | |
− | + | <br>माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥ | |
− | + | <br>गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥ | |
− | + | <br>निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥ | |
− | + | <br>मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥ | |
− | + | <br>मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥ | |
− | + | <br>सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥ | |
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− | + | <br>दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। | |
− | + | <br>बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥१३३॥ | |
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− | <br>दो०- | + | |
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− | <br> | + | <br>चौ०-जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥ |
+ | <br>तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥ | ||
+ | <br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥ | ||
+ | <br>रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥ | ||
+ | <br>मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥ | ||
+ | <br>जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥ | ||
+ | <br>काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥ | ||
+ | <br>मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥ | ||
+ | <br>दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल। | ||
+ | <br>देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥ | ||
<br> | <br> | ||
− | <br> | + | <br>चौ०-जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥ |
+ | <br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥ | ||
+ | <br>धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥ | ||
+ | <br>दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥ | ||
+ | <br>मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥ | ||
+ | <br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥ | ||
+ | <br>अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥ | ||
+ | <br>बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥ | ||
+ | <br>दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ। | ||
+ | <br>हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥ | ||
<br> | <br> | ||
− | <br> | + | <br>चौ०–पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥ |
+ | <br>फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥ | ||
+ | <br>देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥ | ||
+ | <br>बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥ | ||
+ | <br>बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥ | ||
+ | <br>सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥ | ||
+ | <br>पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥ | ||
+ | <br>मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥ | ||
+ | <br>दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु। | ||
+ | <br>स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥ | ||
<br> | <br> | ||
− | + | चौ०-परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥ | |
− | <br> | + | <br>भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥ |
− | <br> | + | <br>डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥ |
− | <br> | + | <br>करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥ |
− | <br> | + | <br>भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥ |
− | <br> | + | <br>बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥ |
− | <br> | + | <br>कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥ |
− | <br> | + | <br>मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि। |
− | <br>निज | + | <br>निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥१३७॥ |
− | <br> | + | <br> |
− | + | <br>चौ०-जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥ | |
− | <br> | + | <br>तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥ |
− | <br> | + | <br>मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥ |
− | + | <br>मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥ | |
− | + | <br>जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥ | |
− | + | <br>कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥ | |
− | + | <br>जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥ | |
− | + | <br>अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥ | |
− | <br> | + | <br>दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥ |
− | <br> | + | <br>सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥१३८॥ |
− | + | <br> | |
− | <br> | + | <br>चौ०-हरगन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥ |
− | <br> | + | <br>अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥ |
− | <br> | + | <br>हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥ |
− | + | <br>श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥ | |
− | + | <br>निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥ | |
− | + | <br>भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ। | |
− | + | <br>समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥ | |
− | + | <br>चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥ | |
− | + | <br>दो०-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। | |
− | + | <br>सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥१३९॥ | |
− | + | <br> | |
− | <br> | + | <br>चौ०-एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥ |
− | + | <br>कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥ | |
− | + | <br>तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥ | |
− | <br>भए | + | <br>बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥ |
− | + | <br>हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥ | |
− | <br>राम | + | <br>रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥ |
− | <br> | + | <br>यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥ |
− | <br> | + | <br>प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥ |
− | + | <br>सो०-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥ | |
− | <br> | + | <br>अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥१४०॥ |
− | <br> | + | <br> |
− | + | <br>चौ०-अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥ | |
− | + | <br>जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥ | |
− | + | <br>जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥ | |
− | + | <br>जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥ | |
− | + | <br>अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥ | |
− | + | <br>लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥ | |
− | + | <br>भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥ | |
− | + | <br>लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥ | |
− | + | <br>दो०-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥ | |
− | + | <br>राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥ | |
− | + | <br> | |
− | + | <br>चौ०-स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥ | |
− | + | <br>दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥ | |
− | + | <br>नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥ | |
− | + | <br>लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥ | |
− | <br> | + | <br>देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥ |
− | <br> | + | <br>आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥ |
− | + | <br>सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥ | |
− | <br> | + | <br>तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥ |
− | <br> | + | <br>सो०-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन। |
− | + | <br>हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥ | |
− | <br> | + | <br> |
− | <br> | + | <br>चौ०-बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥ |
− | + | <br>तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥ | |
− | + | <br>बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥ | |
− | + | <br>पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥ | |
− | + | <br>पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥ | |
− | <br>सुर | + | <br>आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥ |
− | <br> | + | <br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥ |
− | <br> | + | <br>कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना । |
− | + | <br>दो०-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग। | |
− | <br> | + | <br>बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥१४३॥ |
− | + | <br> | |
− | + | <br>चौ०-करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहि ब्रह्म सच्चिदानंदा॥ | |
− | + | <br>पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥ | |
− | + | <br>उर अभिलाष निंरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥ | |
− | + | <br>अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥ | |
− | + | <br>नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥ | |
− | <br>तब | + | <br>संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥ |
− | <br> | + | <br>ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥ |
− | <br> | + | <br>जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥ |
− | <br> | + | <br>दो०-एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार। |
− | + | <br>संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥१४४॥ | |
− | + | <br> | |
− | + | <br>चौ०-बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥ | |
− | <br> | + | <br>बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥ |
− | <br> | + | <br>मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥ |
− | + | <br>अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥ | |
− | + | <br>प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥ | |
− | + | <br>मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥ | |
− | + | <br>मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥ | |
− | + | <br>हृष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥ | |
− | <br> | + | <br>दो०-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात। |
− | + | <br>बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥१४५॥ | |
− | + | <br> | |
− | + | <br>चौ०-सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥ | |
− | + | <br>सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥ | |
− | + | <br>जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥ | |
− | + | <br>जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥ | |
− | + | <br>जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥ | |
− | + | <br>देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥ | |
− | + | <br>दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥ | |
− | + | <br>भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥ | |
− | + | <br>दो०-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। | |
− | <br> | + | <br>लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥ |
− | + | <br> | |
− | + | <br>चौ०-सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥ | |
− | + | <br>अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥ | |
− | <br> | + | <br>नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥ |
− | <br> | + | <br>भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥ |
− | + | <br>कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥ | |
− | <br> | + | <br>उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥ |
− | <br> | + | <br>केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥ |
− | + | <br>करि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥ | |
− | + | <br>दो०-तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥ | |
− | <br> | + | <br>नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥ |
− | <br> | + | <br> |
− | <br> | + | <br>चौ०-पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥ |
− | + | <br>बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥ | |
− | + | <br>जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥ | |
− | <br> | + | <br>भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥ |
− | + | <br>छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥ | |
− | + | <br>चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥ | |
− | + | <br>हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥ | |
− | + | <br>सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥ | |
− | <br> | + | <br>दो०-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। |
− | + | <br>मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥ | |
− | + | <br> | |
− | + | <br>चौ०-सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥ | |
− | + | <br>नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥ | |
− | + | <br>एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥ | |
− | + | <br>तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥ | |
− | <br>दो०- | + | <br>जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥ |
− | <br> | + | <br>तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥ |
− | + | <br>सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥ | |
− | + | <br>सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥ | |
− | <br> | + | <br>दो०-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥ |
− | <br> | + | <br>चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥ |
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+ | <br>चौ०-देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥ | ||
+ | <br>आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥ | ||
+ | <br>सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥ | ||
+ | <br>जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥ | ||
+ | <br>प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥ | ||
+ | <br>तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥ | ||
+ | <br>अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥ | ||
+ | <br>जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥ | ||
+ | <br>दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥ | ||
+ | <br>सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥ |
16:23, 19 मई 2007 का अवतरण
चौ०-जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
छं०-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
दो०-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥
चौ-बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
छं०-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
दो०-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥१०२॥
चौ०-तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
छं०-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
दो०-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥१०३॥
–*–*–
संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
दो०-प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥
चौ०-मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
दो०-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥१०५॥
–*–*–
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
दो०-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
दो०-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
चौ०-जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
चौ०-जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
दो०-बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
चौ०-जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥
दो०-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥११०॥
चौ०-पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥
चौ०-झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥
चौ०-तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥
चौ०-रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
दो०-कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥११४॥
चौ०-अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥
सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥
चौ०-सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥
चौ०-निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
दो०-रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥
चौ०-एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
दो०-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥
चौ०-कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
दो०-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥
चौ०-ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
दो०-हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥१२०(क)॥
नवान्हपारायण,पहला विश्राम
मासपारायण, चौथा विश्राम
सो०-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥१२०(ख)॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥१२०(ग)॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥१२०(घ॥
चौ०-सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
दो०-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥
चौ०-सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
दो०-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२॥
चौ०-मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
दो०-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥
चौ०-तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४(क)॥
सो०-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥१२४(ख)॥
चौ०-हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
दो०-सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥
चौ०-तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
चौ०-भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥
दो०-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥
चौ०-राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
दो०-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
चौ०-
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
दो०-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥
चौ०-बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
दो०-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥
चौ०-
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
दो०-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥
चौ०-हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥
चौ०-कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥१३३॥
चौ०-जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥
चौ०-जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥
चौ०–पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥
चौ०-परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
दो०-श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥१३७॥
चौ०-जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥१३८॥
चौ०-हरगन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
दो०-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥१३९॥
चौ०-एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
सो०-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥१४०॥
चौ०-अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
दो०-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥
चौ०-स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
सो०-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥
चौ०-बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
दो०-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥१४३॥
चौ०-करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहि ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥
दो०-एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥१४४॥
चौ०-बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
हृष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
दो०-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥१४५॥
चौ०-सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
दो०-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥
चौ०-सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
करि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
दो०-तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥
चौ०-पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
दो०-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥
चौ०-सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
दो०-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥
चौ०-देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥