"प्रथम प्रकरण / श्लोक 1-10 / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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अष्टावक्र उवाचः | अष्टावक्र उवाचः | ||
− | प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष , तज विषयों को ,जैसे विष तजें , | + | प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष, तज विषयों को ,जैसे विष तजें, |
− | सन्तोष ,करूणा सत, क्षमा , पीयूष वत नित -नित भजें . [ २ ] | + | सन्तोष, करूणा सत, क्षमा, पीयूष वत नित -नित भजें . [ २ ] |
− | + | न ही वायु, जल, अग्नि, धरा और न ही तू आकाश है, | |
− | + | मुक्ति हेतु साक्ष्य तू, चैतन्य रूप प्रकाश है . [ ३ ] | |
− | यदि पृथक करके देह भाव को , देही में आवास हो | + | यदि पृथक करके देह भाव को, देही में आवास हो |
− | तब तू अभी सुख शांति , बन्धन मुक्त भव , विश्वास हो .[ ४ ] | + | तब तू अभी सुख शांति, बन्धन मुक्त भव, विश्वास हो .[ ४ ] |
− | वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है , | + | वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है, |
− | आकार हीन असंग केवल , साक्ष्य भाव प्रबंध है . [ ५ ] | + | आकार हीन असंग केवल, साक्ष्य भाव प्रबंध है . [ ५ ] |
− | सुख दुःख धर्म - अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं , | + | सुख दुःख धर्म - अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं, |
कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं . [ ६ ] | कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं . [ ६ ] | ||
सर्वस्व दृष्टा एक तू , और सर्वदा उन्मुक्त है , | सर्वस्व दृष्टा एक तू , और सर्वदा उन्मुक्त है , | ||
− | यदि अन्य को दृष्टा कहे ,भ्रम , तू ही बन्धन युक्त है . [ ७ ] | + | यदि अन्य को दृष्टा कहे, भ्रम, तू ही बन्धन युक्त है . [ ७ ] |
− | तू अहम् रुपी सर्प दंषित , कह रहा कर्ता मैं ही , | + | तू अहम् रुपी सर्प दंषित, कह रहा कर्ता मैं ही , |
− | विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा , कर्ता नहीं . [ ८ ] | + | विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा, कर्ता नहीं . [ ८ ] |
− | मैं सुध , बुद्ध, प्रबुद्ध , चेतन , | + | मैं सुध, बुद्ध, प्रबुद्ध, चेतन, ज्ञानमय चैतन्य हूँ, |
− | अज्ञान रुपी वन जला कर , ज्ञान से मैं धन्य हूँ . [९ ] | + | अज्ञान रुपी वन जला कर, ज्ञान से मैं धन्य हूँ . [९ ] |
− | सब जगत कल्पित असत ,रज्जु मैं सर्प का आभास है | + | सब जगत कल्पित असत, रज्जु मैं सर्प का आभास है |
− | इस बोध का कारण कि तुझमें , भ्रम का ही वास है .[१०] | + | इस बोध का कारण कि तुझमें, भ्रम का ही वास है .[१०] |
23:42, 30 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
जनक उवाचः
हे ईश ! मानव ज्ञान कैसे , प्राप्त कर सकता अहो !
हमें मुक्ति और वैराग्य कैसे , मिल सकें कृपया कहो [ १ ]
अष्टावक्र उवाचः
प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष, तज विषयों को ,जैसे विष तजें,
सन्तोष, करूणा सत, क्षमा, पीयूष वत नित -नित भजें . [ २ ]
न ही वायु, जल, अग्नि, धरा और न ही तू आकाश है,
मुक्ति हेतु साक्ष्य तू, चैतन्य रूप प्रकाश है . [ ३ ]
यदि पृथक करके देह भाव को, देही में आवास हो
तब तू अभी सुख शांति, बन्धन मुक्त भव, विश्वास हो .[ ४ ]
वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है,
आकार हीन असंग केवल, साक्ष्य भाव प्रबंध है . [ ५ ]
सुख दुःख धर्म - अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं,
कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं . [ ६ ]
सर्वस्व दृष्टा एक तू , और सर्वदा उन्मुक्त है ,
यदि अन्य को दृष्टा कहे, भ्रम, तू ही बन्धन युक्त है . [ ७ ]
तू अहम् रुपी सर्प दंषित, कह रहा कर्ता मैं ही ,
विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा, कर्ता नहीं . [ ८ ]
मैं सुध, बुद्ध, प्रबुद्ध, चेतन, ज्ञानमय चैतन्य हूँ,
अज्ञान रुपी वन जला कर, ज्ञान से मैं धन्य हूँ . [९ ]
सब जगत कल्पित असत, रज्जु मैं सर्प का आभास है
इस बोध का कारण कि तुझमें, भ्रम का ही वास है .[१०]