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"जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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:थी ताकत हिय में सरसायी ।
 
:थी ताकत हिय में सरसायी ।
 
घर-घर के सजल अंधेरे से
 
घर-घर के सजल अंधेरे से
 
 
मेघों ने कुछ उपदेश लिए,
 
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जीवन की नसीहतें पायीं ।
 
जीवन की नसीहतें पायीं ।
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::युग जीवन सरसाया ।
 
::युग जीवन सरसाया ।
 
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
 
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
 
 
ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
 
ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
 
ज़िंदगी नशे सी छायी है
 
ज़िंदगी नशे सी छायी है
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::जिन लोगों ने
 
::जिन लोगों ने
 
अपने अंतर में घिरे हुए
 
अपने अंतर में घिरे हुए
 
 
गहरी ममता के अगुरू-धूम
 
गहरी ममता के अगुरू-धूम
 
::के बादल सी
 
::के बादल सी
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:वह हुलसी, वह अकुलायी
 
:वह हुलसी, वह अकुलायी
 
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
 
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
 
 
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
 
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
 
:युगों-युगों को तारा है,
 
:युगों-युगों को तारा है,
 
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
 
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
 
 
कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
 
कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
 
 
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
 
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
 
::पार लगायी है,
 
::पार लगायी है,
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:::सौ-सौ जीवन,
 
:::सौ-सौ जीवन,
 
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
 
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
 
 
मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
 
मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
 
 
उनकी बाहों को अपने उर पर
 
उनकी बाहों को अपने उर पर
 
:धारण कर वरमाला-सी
 
:धारण कर वरमाला-सी
 
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
 
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
 
 
उनकी ताकत
 
उनकी ताकत
 
पायी मैंने अपने भीतर ।
 
पायी मैंने अपने भीतर ।
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::उनके ही तो ।
 
::उनके ही तो ।
 
यादें उनकी
 
यादें उनकी
 
 
कैसी-कैसी बातें लेकर,
 
कैसी-कैसी बातें लेकर,
 
जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
 
जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
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:बेर-अबेर खिली,
 
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क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
 
क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
 
 
पर, लहराती अलकों में बिंध,
 
पर, लहराती अलकों में बिंध,
 
आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
 
आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
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जनपथ पर मरे शहीदों के
 
जनपथ पर मरे शहीदों के
 
अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम,
 
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लेखक की दुर्दम कलम चली ।
 
लेखक की दुर्दम कलम चली ।
 
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11:15, 2 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

अपने समुंदरों के विभोर
मस्ती के शब्दों में गम्भीर
तब मेरा हिन्दुस्तान हँसा ।
जन-संघर्षों की राहों पर
आंगन के नीमों ने मंजरियाँ बरसायीं ।
अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी
थी ताकत हिय में सरसायी ।
घर-घर के सजल अंधेरे से
मेघों ने कुछ उपदेश लिए,
जीवन की नसीहतें पायीं ।
जन-संघर्षों की राहों पर
गम्भीर घटाओं ने
युग जीवन सरसाया ।
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
ज़िंदगी नशे सी छायी है
नव-वधुका बन
यह बुद्धिमती
ऐसी तेरे घर आई है ।

रे, स्वयं अगरबत्ती से जल,
सुगंध फैला
जिन लोगों ने
अपने अंतर में घिरे हुए
गहरी ममता के अगुरू-धूम
के बादल सी
मुझको अथाह मस्ती प्रदान की
वह हुलसी, वह अकुलायी
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
युगों-युगों को तारा है,
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
पार लगायी है,
जिनके कि पूत-पावन चरणों में
हुलसे मन —
से किये निछावर जा सकते
सौ-सौ जीवन,
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
उनकी बाहों को अपने उर पर
धारण कर वरमाला-सी
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
उनकी ताकत
पायी मैंने अपने भीतर ।
कल्याणमयी करुणाओं के
वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
मेरे हिय में जाने किसने, जाने कैसे
उनकी उस सहजोत्सर्गमयी
आत्मा के कोमल पंख फँसे
मेरे हिय में,
मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
उनके ही तो ।
यादें उनकी
कैसी-कैसी बातें लेकर,
जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
दुःखान्त साँझ
दुर्दान्त भव्य रातें लेकर
यादें उनकी
मेरे मन में
ऐसी घुमड़ीं
ऐसी घुमड़ीं
मानो कि गीत के
किसी विलम्बित सुर में —
उनके घर आने की
बेर-अबेर खिली,
क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
पर, लहराती अलकों में बिंध,
आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम,
जनपथ पर मरे शहीदों के
अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम,
लेखक की दुर्दम कलम चली ।