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"जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
 
दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
 
 
मानो जीवन सरिता
 
मानो जीवन सरिता
 
:जलते कूलोंवाली,
 
:जलते कूलोंवाली,
 
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
 
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
 
 
बहती है तरुणों की आत्मा प्रतिभाशाली
 
बहती है तरुणों की आत्मा प्रतिभाशाली
 
 
अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
 
अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
 
 
लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
 
लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
 
 
ये भारतीय नूतन झरने
 
ये भारतीय नूतन झरने
 
 
अंगारों की धाराओं से
 
अंगारों की धाराओं से
 
 
विक्षोभों के उद्वेगों में
 
विक्षोभों के उद्वेगों में
 
 
संघर्षों के उत्साहों में
 
संघर्षों के उत्साहों में
 
:जाने क्या-क्या सहते रहते ।
 
:जाने क्या-क्या सहते रहते ।
 
 
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
 
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
 
 
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
 
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
 
:धरती की प्रस्तर-माला
 
:धरती की प्रस्तर-माला
 
जल-भरे पारदर्शी उर में !!
 
जल-भरे पारदर्शी उर में !!
 
 
सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
 
सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
 
 
जन-जन के पुत्रों के हिय में
 
जन-जन के पुत्रों के हिय में
 
:मचले हिन्दुस्तानी झरने
 
:मचले हिन्दुस्तानी झरने
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इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
 
इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
 
 
लहरों में लहराती धरती
 
लहरों में लहराती धरती
 
:की बाहों ने
 
:की बाहों ने
 
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
 
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
 
 
मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
 
मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
 
 
इन झरनों में
 
इन झरनों में
 
 
अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
 
अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
 
 
ऐसा संघर्षी वर्तमान —
 
ऐसा संघर्षी वर्तमान —
 
:तुम भी तो हो,
 
:तुम भी तो हो,
 
 
मानव-भविष्य का आसमान —
 
मानव-भविष्य का आसमान —
 
:तुममें भी है,
 
:तुममें भी है,
 
मानव-दिगन्त के कूलों पर
 
मानव-दिगन्त के कूलों पर
 
 
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
 
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
 
:वे अपनी लाल बुनावट में
 
:वे अपनी लाल बुनावट में
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:के लिए विकल हो उठती हैं —
 
:के लिए विकल हो उठती हैं —
 
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
 
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
 
 
वह तुम ही हो.
 
वह तुम ही हो.
 
 
इस रिश्ते से, इस नाते से
 
इस रिश्ते से, इस नाते से
 
 
यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
 
यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
 
 
बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
 
बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
 
 
ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
 
ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
 
 
पत्थर, जंगल
 
पत्थर, जंगल
 
 
पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
 
पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
 
 
उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
 
उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
 
 
मानव-दिगन्त के कूलों पर
 
मानव-दिगन्त के कूलों पर
 
 
जिन किरनों का ताना-बाना
 
जिन किरनों का ताना-बाना
 
:उस रश्मि-रेशमी
 
:उस रश्मि-रेशमी
 
:क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
 
:क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
 
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
 
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
 
 
आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
 
आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
 
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11:18, 2 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
मानो जीवन सरिता
जलते कूलोंवाली,
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
बहती है तरुणों की आत्मा प्रतिभाशाली
अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
ये भारतीय नूतन झरने
अंगारों की धाराओं से
विक्षोभों के उद्वेगों में
संघर्षों के उत्साहों में
जाने क्या-क्या सहते रहते ।
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
धरती की प्रस्तर-माला
जल-भरे पारदर्शी उर में !!
सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
जन-जन के पुत्रों के हिय में
मचले हिन्दुस्तानी झरने
मानव युग के ।

इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
लहरों में लहराती धरती
की बाहों ने
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
इन झरनों में
अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
ऐसा संघर्षी वर्तमान —
तुम भी तो हो,
मानव-भविष्य का आसमान —
तुममें भी है,
मानव-दिगन्त के कूलों पर
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
वे अपनी लाल बुनावट में
जिन कुसुमों की आकृति बुनने
के लिए विकल हो उठती हैं —
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
वह तुम ही हो.
इस रिश्ते से, इस नाते से
यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
पत्थर, जंगल
पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
मानव-दिगन्त के कूलों पर
जिन किरनों का ताना-बाना
उस रश्मि-रेशमी
क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
आदर्श बिम्ब मानव युग के ।