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"जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
 
उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
 
 
जन-जन के संघर्षों में विकसित
 
जन-जन के संघर्षों में विकसित
 
:परिणत होते नूतन मन का ।
 
:परिणत होते नूतन मन का ।
 
::वह अन्तस्तल . . . . . .
 
::वह अन्तस्तल . . . . . .
 
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
 
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
 
 
अनुभव-गरिमाओं की आभा
 
अनुभव-गरिमाओं की आभा
 
 
वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
 
वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
 
 
सौ सहानुभूतियों की गरमी,
 
सौ सहानुभूतियों की गरमी,
 
 
प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
 
प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
 
 
ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
 
ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
 
 
नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
 
नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
 
 
मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
 
मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
 
 
उस स्वर्ण-सरोवर का जल
 
उस स्वर्ण-सरोवर का जल
 
:चमक रहा देखो
 
:चमक रहा देखो
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:मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
 
:मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
 
उस दिन, उस क्षण
 
उस दिन, उस क्षण
 
 
नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
 
नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
 
:मेरे आंगन,
 
:मेरे आंगन,
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::था प्रस्तुत यों
 
::था प्रस्तुत यों
 
मेरे सम्मुख आया मानो
 
मेरे सम्मुख आया मानो
 
 
मेरा ही मन ।
 
मेरा ही मन ।
 
 
वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
 
वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
 
 
इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
 
इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
 
 
जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,
 
जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,
 
 
तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
 
तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
 
 
नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
 
नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
 
 
मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
 
मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
 
 
मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
 
मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
 
 
है फैल चली मेरी दुनिया की
 
है फैल चली मेरी दुनिया की
 
:या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
 
:या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
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::अभिमान हुआ
 
::अभिमान हुआ
 
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
 
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
 
 
जब भव्य तुम्हारा संवेदन
 
जब भव्य तुम्हारा संवेदन
 
 
सबके सम्मुख रख सका, तभी
 
सबके सम्मुख रख सका, तभी
 
 
अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
 
अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
 
::झलमला उठी !!
 
::झलमला उठी !!
 
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11:20, 2 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
जन-जन के संघर्षों में विकसित
परिणत होते नूतन मन का ।
वह अन्तस्तल . . . . . .
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
अनुभव-गरिमाओं की आभा
वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
सौ सहानुभूतियों की गरमी,
प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
उस स्वर्ण-सरोवर का जल
चमक रहा देखो
उस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा ।

ताना-बाना
मानव दिगंत किरनों का
मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
उस दिन, उस क्षण
नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
मेरे आंगन,
प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो
मधुशील चन्द्र
था प्रस्तुत यों
मेरे सम्मुख आया मानो
मेरा ही मन ।
वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,
तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
है फैल चली मेरी दुनिया की
या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
तुम क्या जानो मुझको कितना
अभिमान हुआ
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
जब भव्य तुम्हारा संवेदन
सबके सम्मुख रख सका, तभी
अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
झलमला उठी !!