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"जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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ईमानदार संस्कार-मयी
 
ईमानदार संस्कार-मयी
 
 
सन्तुलित नयी गहरी चेतना
 
सन्तुलित नयी गहरी चेतना
 
 
:अभय होकर अपने
 
:अभय होकर अपने
 
वास्तविक मूलगामी निष्कर्षों तक पहुँची
 
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ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से
 
ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से
 
 
वैज्ञानिक मानव-शस्त्रों से
 
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मेरे सहचर हैं ढहा रहे
 
मेरे सहचर हैं ढहा रहे
 
 
वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता ।
 
वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता ।
 
 
उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा
 
उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा
 
 
जब मेरे भीतर मंडरायी
 
जब मेरे भीतर मंडरायी
 
 
मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं ।
 
मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं ।
 
 
कागज़ की भूरी छाती पर
 
कागज़ की भूरी छाती पर
 
:नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ
 
:नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ
 
 
छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान
 
छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान
 
 
वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय
 
वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय
 
:कमल खिला
 
:कमल खिला
 
::रवि का ।
 
::रवि का ।
 
शब्दों-शब्दों में वाक्यों में
 
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मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला
 
मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला
 
:उसकी विश्वाकुल एक किरन
 
:उसकी विश्वाकुल एक किरन
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:तुम भी तो हो,
 
:तुम भी तो हो,
 
वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में
 
वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में
 
 
उगे आक के फूलों के नीले तारे,
 
उगे आक के फूलों के नीले तारे,
 
 
मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी
 
मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी
 
:चम्पा के साथ
 
:चम्पा के साथ
 
::उगे प्यारे,
 
::उगे प्यारे,
 
मानो जहरीले अनुभव में
 
मानो जहरीले अनुभव में
 
 
मानव-भावों के अमृतमय
 
मानव-भावों के अमृतमय
 
:शत-प्रतिभाओं के अंगारे,
 
:शत-प्रतिभाओं के अंगारे,
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::तुम-जैसे-जन
 
::तुम-जैसे-जन
 
मेरे जीवन निर्झर के पथरीले तट पर
 
मेरे जीवन निर्झर के पथरीले तट पर
 
 
आ खड़े हुए,
 
आ खड़े हुए,
 
 
तब मैंने नहीं पुकारा — 'तुम आ जाओ'
 
तब मैंने नहीं पुकारा — 'तुम आ जाओ'
 
 
तब मैंने नहीं कहा था यों
 
तब मैंने नहीं कहा था यों
 
 
मेरे मन की जल धारा में
 
मेरे मन की जल धारा में
 
 
तुम हाथ डुबो,
 
तुम हाथ डुबो,
 
:मुँह धो लो, जल पी लो, अपना
 
:मुँह धो लो, जल पी लो, अपना
 
:मुख बिम्ब निहारो तुम ।
 
:मुख बिम्ब निहारो तुम ।
 
जब मेरे मन की पथरीली
 
जब मेरे मन की पथरीली
 
 
निर्झर धारा के फूलों पर,
 
निर्झर धारा के फूलों पर,
 
 
गहरी धनिष्ठता की असीम
 
गहरी धनिष्ठता की असीम
 
 
गम्भीर घटाएँ घुमड़ी थीं,
 
गम्भीर घटाएँ घुमड़ी थीं,
 
 
गम्भीर मेघ-दल उमड़े थे,
 
गम्भीर मेघ-दल उमड़े थे,
 
 
औ' जीवन की सीधी सुगन्ध
 
औ' जीवन की सीधी सुगन्ध
 
 
जब महकी थी
 
जब महकी थी
 
:ईमाम-भरे-बेछोर सरल मैदानों पर
 
:ईमाम-भरे-बेछोर सरल मैदानों पर
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:डोली थीं,
 
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तब मैंने कहा था अपनी आँखों में
 
तब मैंने कहा था अपनी आँखों में
 
 
भावातिरेक तुम दरसाओ ।
 
भावातिरेक तुम दरसाओ ।
 
 
जब आसमान से धरती तक
 
जब आसमान से धरती तक
 
:आकस्मिक एक प्रकाश-बेल
 
:आकस्मिक एक प्रकाश-बेल
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:सहसा तुम बेपर्द हुईं
 
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जब मेरे-मन-निर्झर-तट पर
 
जब मेरे-मन-निर्झर-तट पर
 
 
तब मैंने नहीं कहा थी मुझको इस प्रकार
 
तब मैंने नहीं कहा थी मुझको इस प्रकार
 
 
तुम अपना अंतर का प्राकार बना जाओ ।
 
तुम अपना अंतर का प्राकार बना जाओ ।
 
 
लेकिन संघर्षों के पथ पर
 
लेकिन संघर्षों के पथ पर
 
:ऐसे अवसर आते ही हैं,
 
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:इस प्रकार,
 
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जीवन के प्रखर-समर्थक से प्रश्न-चिन्ह
 
जीवन के प्रखर-समर्थक से प्रश्न-चिन्ह
 
 
बौखला रहे हों दुर्निवार !!
 
बौखला रहे हों दुर्निवार !!
 
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11:21, 2 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

ईमानदार संस्कार-मयी
सन्तुलित नयी गहरी चेतना
अभय होकर अपने
वास्तविक मूलगामी निष्कर्षों तक पहुँची
ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से
वैज्ञानिक मानव-शस्त्रों से
मेरे सहचर हैं ढहा रहे
वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता ।
उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा
जब मेरे भीतर मंडरायी
मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं ।
कागज़ की भूरी छाती पर
नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ
छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान
वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय
कमल खिला
रवि का ।
शब्दों-शब्दों में वाक्यों में
मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला
उसकी विश्वाकुल एक किरन
तुम भी तो हो,
धरती के जी को अकुलानेवाली
छवि-मधुरा कविता की
प्यारी-प्यारी सी एक कहन
तुम भी तो हो,
वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में
उगे आक के फूलों के नीले तारे,
मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी
चम्पा के साथ
उगे प्यारे,
मानो जहरीले अनुभव में
मानव-भावों के अमृतमय
शत-प्रतिभाओं के अंगारे,
उनकी दुर्दान्त पराकाष्ठा
की एक किरन
तुम भी तो हो !!
अपने संघर्षों के कडुए
अनुभव की
छाती के भीतर
दुर्दान्त ऐतिहासिक दर्दों की भँवर लिये
तुम-जैसे-जन
मेरे जीवन निर्झर के पथरीले तट पर
आ खड़े हुए,
तब मैंने नहीं पुकारा — 'तुम आ जाओ'
तब मैंने नहीं कहा था यों
मेरे मन की जल धारा में
तुम हाथ डुबो,
मुँह धो लो, जल पी लो, अपना
मुख बिम्ब निहारो तुम ।
जब मेरे मन की पथरीली
निर्झर धारा के फूलों पर,
गहरी धनिष्ठता की असीम
गम्भीर घटाएँ घुमड़ी थीं,
गम्भीर मेघ-दल उमड़े थे,
औ' जीवन की सीधी सुगन्ध
जब महकी थी
ईमाम-भरे-बेछोर सरल मैदानों पर
तब क्यों सहसा
तूफानी मेघों के हिय में
तुम विद्युत की दुर्दान्त व्यथा-सी
डोली थीं,
तब मैंने कहा था अपनी आँखों में
भावातिरेक तुम दरसाओ ।
जब आसमान से धरती तक
आकस्मिक एक प्रकाश-बेल
विद्युत की नील विलोल लता-सी
सहसा तुम बेपर्द हुईं
जब मेरे-मन-निर्झर-तट पर
तब मैंने नहीं कहा थी मुझको इस प्रकार
तुम अपना अंतर का प्राकार बना जाओ ।
लेकिन संघर्षों के पथ पर
ऐसे अवसर आते ही हैं,
ऐसे सहचर मिलते ही हैं,
नभ-मण्डल में खुद को उद्घाटित
करता चलता है सूरज
इस प्रकार,
जीवन के प्रखर-समर्थक से प्रश्न-चिन्ह
बौखला रहे हों दुर्निवार !!