भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अंतराल / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2 }} <poem> तुम मेरे बचपन की सखी थी क...)
(कोई अंतर नहीं)

06:46, 26 फ़रवरी 2009 का अवतरण

 

तुम मेरे बचपन की सखी थी
कैशोर्य के मेरे तमाम सपने
तुमसे शुरु होकर तिम तक खत्म होते थे
एक गोधूली रात की नीरवता में
और एक जंगल कुछ दूर जाकर
बहुत बड़े निर्जन मैदान में बदल जाता था
रात फिर ओस टपकाती सुबह में
और चिलचिलाने लगती दोपहरी
उन दोपहरियों में
तुर्गनेव की नायिकायें याद आती थीं
और दूर देश के अजीब से रास्ते
जंगल और झीलें
तप्त होठों से दिये गये वचन
और खामिशियां

एक दिन तुमने पार कर ली
बीस वसंतों की देहरी
और अपने भीतर ही कहीं गुम गयी

बरसों बाद लौटा परदेश से मैं
तो पाया तुम्हारे पिता को तुम्हारे विवाह की चिन्ता थी

तुम और भी सुंदर हो गयी थी
पर तुम सिख नहीं पायी प्रेम करना
तुम देखती थी गुमसुम
वसंत के खिलते फूल
और आसमान का छोर नापता चांद

बचना था तुम्हें सपनों से
प्रेम से, एकांत से
तुममें जो एक झरना छिपा था
बचना था उसके शोर से
बचना था आषाढ़, फ़ाल्गुन और आश्विन से

मैं तुम से क्या कहता
किस मौसम की याद दिलाता
किन महकती रातरानियों का जिक्र छेड़ता
तुम्हारा हांथ थामे
किन जंगलों में गुम होता
किन सपनों की कथा पूछता तुमसे
जो वचन दिये ही नहीं गये
उनकी कौन-सी यादें दिलाता ?

मैं चला आया
पर्वत, नदी, वन
रात और चांद पार करता
पार करता सपनॊं का नीलम देश
उनींदी पहाड़ियां
गुलाल उड़ाते बादल
और कोहरे में सोये गांव...

एक धुंधले मोड़ पर गुम हो गयी हैं
तुर्गनेव की नायिकायें
झील पर सिर्फ
अकेला बादल रह गया है
मंडराता ...