भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं तुम्हारे साथ रहूंगी हमेशा / रंजीत वर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजीत वर्मा }} <poem> दिल्ली की सड़कें कितनी विरान ह...)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
 
<poem>
 
<poem>
दिल्ली की सड़कें कितनी विरान है
+
सबसे बुरे दिनों में
यह मैंने जाना
+
मुझे तुम्हारा साथ मिला
तुम्हारे जाने के बाद
+
जब मेरे पास जीने का कोई
तुम जहां नहीं होती
+
मकसद नहीं बचा था
वहां छांह नहीं होती
+
और फाकाकशी
और उफ
+
मुझे संभलने का मौका नहीं दे रही थी
यह धूप होती है कितनी तेज
+
 
कोई आसरा नहीं होता
+
ऐसे अंधेरे वक्त में
हर आहट हो जाती है दूर  
+
जब पांव डगमगा जाते हैं अक्सर
प्रेम की तड़प खत्म नहीं हुई हमारी
+
मुझे तुम्हारा साथ मिला
इस उत्तर आधुनिक युग में भी
+
 
क्या मैं उम्मीद करूं कि
+
तुम दूर से आती दिखती थी
हवाओं के झोंकों से भरा दरख्त बनकर
+
और पत्थर पर बैठा मैं
तुम आओगी मेरे जीवन में
+
तुम्हें उठते हुए चांद की तरह देखता था
गिरोगी मेरी आत्मा पर
+
रोटी की लड़ाई लड़ता हुआ मैं इस तरह
ठंडा बहता झरना बनकर
+
चांद के करीब चला जाता था
तुम्हारी पलकें झुकेंगी
+
 
और छुपा लेंगी मुझे अंदर कहीं
+
चांद ठहरता नहीं हमेशा पूरी रात
बिखरे केश में ढंक जाता है तुम्हारा चेहरा
+
तुम भी चली गई एक दिन
चांद और बादल का ऐसा
+
एक ऐसे ही अंधेरे वक्त में
अलौकिक दष्श्य
+
ज्ब पांव डगमगा जाते हैं अक्सर
एक तुम्ही रच सकती हो
+
 
एस धरती पर
+
मेरी आंखों में गहरे कहीं
मुझे पता है
+
तुम अमिट प्यास की तरह बस र्गए
मैं खत्म हो जाऊंगा एक दिन
+
 
तब भी नहीं देख पाऊंगा यह सच।
+
मेरी धमनियों में दौड़ते रक्त से
 +
तुम्हारे नाम का संगीत उठता रहा
 +
और वर्षों भटकता रहा मैं
 +
अनजान रास्तों पर
 +
 
 +
और लौटता रहा बार बार
 +
समझने की कोशिश में
 +
 
 +
कि आखिर किसने कहा था
 +
 
 +
मैं तुम्हारे साथ रहूंगी हमेशा।

22:45, 21 मार्च 2009 के समय का अवतरण

सबसे बुरे दिनों में
मुझे तुम्हारा साथ मिला
जब मेरे पास जीने का कोई
मकसद नहीं बचा था
और फाकाकशी
मुझे संभलने का मौका नहीं दे रही थी

ऐसे अंधेरे वक्त में
जब पांव डगमगा जाते हैं अक्सर
मुझे तुम्हारा साथ मिला

तुम दूर से आती दिखती थी
और पत्थर पर बैठा मैं
तुम्हें उठते हुए चांद की तरह देखता था
रोटी की लड़ाई लड़ता हुआ मैं इस तरह
चांद के करीब चला जाता था

चांद ठहरता नहीं हमेशा पूरी रात
तुम भी चली गई एक दिन
एक ऐसे ही अंधेरे वक्त में
ज्ब पांव डगमगा जाते हैं अक्सर

मेरी आंखों में गहरे कहीं
तुम अमिट प्यास की तरह बस र्गए

मेरी धमनियों में दौड़ते रक्त से
तुम्हारे नाम का संगीत उठता रहा
और वर्षों भटकता रहा मैं
अनजान रास्तों पर

और लौटता रहा बार बार
समझने की कोशिश में

कि आखिर किसने कहा था

मैं तुम्हारे साथ रहूंगी हमेशा।