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"मुरली तेरा मुरलीधर / प्रेम नारायण 'पंकिल' / पृष्ठ - ६" के अवतरणों में अंतर

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संश्लेषित जीवन मधुवन को खंड खंड मत कर मधुकर  
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सबसे सकता भाग स्वयं से भाग कहाँ सकता मधुकर  
मधुप दृष्टि ही सृष्टि तुम्हारी वह मरुभूमि वही निर्झर  
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भाग भाग कर रीता ही रीता रह जायेगा निर्झर  
तुम्हें निहार रहा स्नेहिल दृग सर्व सर्वगत नट नागर
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कुछ होने कुछ पा जाने की आशा में बॅंध मर न विकल
टेर रहा आनन्दतरंगा  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।51।।
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टेर रहा स्वात्मानुशिलिनी  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।26।।
  
साध न कुछ बस साध यही साधना साध्य सच्चा मधुकर  
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यदि तोड़ना मूढ़ कुछ है तो तोड़ स्वमूर्च्छा ही मधुकर  
यह सच्ची चेतना उतर बन जाती है जागृति निर्झर  
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जड़ताओं के तृण तरु दल से रुद्ध प्राण जीवन निर्झर  
वह है ही बस वह ही तो है अलि यह प्रेम समाधि भली
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शुचि जागरण सुमन परिमल से सुरभित कर जीवन पंकिल
टेर रहा अमितानुरागिणी मुरली  तेरा    मुरलीधर।।52।।
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टेर रहा है पूर्णानन्दा मुरली  तेरा    मुरलीधर।।27।।
  
कोटि कला कर भी निज छाया पकड़ न पायेगा मधुकर
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क्या ‘मैं’ के अतिरिक्त उसे तूँ अर्पित कर सकता मधुकर  
सच्चे पद में ही मिट पातीं सब काया छाया निर्झर  
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शेष तुम्हारे पास छोड़ने को क्या बचा विषय निर्झर  
फंस संकल्प विकल्पों में क्यों झेल रहा संसृति पीड़ा
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‘मैं’ का केन्द्र बचा कर पंकिल कुछ देना भी क्या देना
टेर रहा है निर्विकल्पिका  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।53।।
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टेर रहा अहिअहंमर्दिनी  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।28।।
  
गिरि श्रृंगों को तोड़ फोड़ कर भूमि गर्भ मंथन मधुकर  
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किसे मिटाने चला स्वयं का ‘मैं’ ही मार मलिन मधुकर  
सूर्य चन्द्र तक पहुंच चीर कर नभ में मेघ पटल निर्झर  
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एकाकार तुम्हारा उसका फिर हो जायेगा निर्झर  
उषा निशा सब दिशाकाल में मतवाला बन ढूँढ़ उसे
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शब्द शून्यता में सुन कैसी मधुर बज रही है वंशी
टेर रहा है प्राणप्रमथिनी मुरली  तेरा    मुरलीधर।।54।।
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टेर रहा विक्षेपनिरस्ता मुरली  तेरा    मुरलीधर।।29।।
  
विषय अनल में जाने कब से दग्ध हो रहा तू मधुकर  
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क्षुधा पिपासा व्याधि व्यथा विभुता विपन्नता में मधुकर  
कृष्ण प्रेम आनन्द सुधामय परम रम्य शीतल निर्झर
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स्पर्श कर रहा वही परमप्रिय सच्चा विविध वर्ण निर्झर  
उसे भूल जग मरुथल में सुख चैन खोजने चले कहाँ
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वही वही संकल्पधनी है सतरंगी झलमल झलमल
टेर रहा शाश्वतसुखाश्रया  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।55।।
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टेर रहा है सर्वगोचरा मुरली  तेरा    मुरलीधर।।30।।
 
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किससे मिलनातुर निशि वासर व्याकुल दौड़ रहा मधुकर
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सच्चे प्रभु के लिये न तड़पा बहा न नयनों से निर्झर  
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व्यर्थ बहुत भटका उनके हित अब दिनरात बिलख पगले
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टेर रहा है अश्रुमालिनी  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।56।।
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सूर्यकान्तमणि सुभग सजाकर अम्बर थाली में मधुकर
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उषा सुन्दरी अरुण आरती करती उसकी नित निर्झर
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सिन्दूरी नभ से मुस्काता वह सच्चा सुषमाशाली
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टेर रहा है किरणमालिनि मुरली  तेरा मुरलीधर।।57।।
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उडुगण मेचक मोर पंख का गगन व्यजन ले कर मधुकर
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झलता पवन विभोरा रजनी पद पखारती रस निर्झर
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तारकगण की दीप मालिका सजा मनाती दीवाली
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टेर रहा ब्रह्माण्डवंदिता मुरली  तेरा    मुरलीधर।।58।।
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उडुमोदक विधु दुग्ध कटोरा व्योम पात्र में भर मधुकर
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सच्चे प्रिय को भोग लगाती मुदित यामिनी नित निर्झर
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किरण तन्तु में गूंथ पिन्हाता हिमकर तारकमणिमाला
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टेर रहा संसृतिमहोत्सवा  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।59।।
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सरित नीर सीकर शीतल ले सरसिज सुमन सुरभि मधुकर
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करता व्यजन विविध विधि मंथर मलय प्रभंजन मधु निर्झर
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सलिल सुधाकण अर्घ्य चढ़ाता उमग उमग कर रत्नाकर
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टेर रहा आनन्दउर्मिला  मुरली  तेरा    मुरलीधर।।60।।
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15:15, 16 अप्रैल 2009 का अवतरण

 
 
सबसे सकता भाग स्वयं से भाग कहाँ सकता मधुकर
भाग भाग कर रीता ही रीता रह जायेगा निर्झर
कुछ होने कुछ पा जाने की आशा में बॅंध मर न विकल
टेर रहा स्वात्मानुशिलिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।26।।

यदि तोड़ना मूढ़ कुछ है तो तोड़ स्वमूर्च्छा ही मधुकर
जड़ताओं के तृण तरु दल से रुद्ध प्राण जीवन निर्झर
शुचि जागरण सुमन परिमल से सुरभित कर जीवन पंकिल
टेर रहा है पूर्णानन्दा मुरली तेरा मुरलीधर।।27।।

क्या ‘मैं’ के अतिरिक्त उसे तूँ अर्पित कर सकता मधुकर
शेष तुम्हारे पास छोड़ने को क्या बचा विषय निर्झर
‘मैं’ का केन्द्र बचा कर पंकिल कुछ देना भी क्या देना
टेर रहा अहिअहंमर्दिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।28।।

किसे मिटाने चला स्वयं का ‘मैं’ ही मार मलिन मधुकर
एकाकार तुम्हारा उसका फिर हो जायेगा निर्झर
शब्द शून्यता में सुन कैसी मधुर बज रही है वंशी
टेर रहा विक्षेपनिरस्ता मुरली तेरा मुरलीधर।।29।।

क्षुधा पिपासा व्याधि व्यथा विभुता विपन्नता में मधुकर
स्पर्श कर रहा वही परमप्रिय सच्चा विविध वर्ण निर्झर
वही वही संकल्पधनी है सतरंगी झलमल झलमल
टेर रहा है सर्वगोचरा मुरली तेरा मुरलीधर।।30।।