भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उठ जाग मुसाफिर भोर भई / भजन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
+
{{KKGlobal}}
 
+
{{KKBhajan}}
  
 
उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो तू सोवत है  
 
उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो तू सोवत है  

19:57, 17 अप्रैल 2009 का अवतरण

उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो तू सोवत है

जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है


खोल नींद से अँखियाँ जरा और अपने प्रभु से ध्यान लगा

यह प्रीति करन की रीती नहीं प्रभु जागत है तू सोवत है.... उठ ...


जो कल करना है आज करले जो आज करना है अब करले

जब चिडियों ने खेत चुग लिया फिर पछताये क्या होवत है... उठ ...


नादान भुगत करनी अपनी ऐ पापी पाप में चैन कहाँ

जब पाप की गठरी शीश धरी फिर शीश पकड़ क्यों रोवत है... उठ ....