भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हमको देखो ज़रा क़रीने से / गोविन्द गुलशन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
तुम मिलो तो निजात मिल जाए | तुम मिलो तो निजात मिल जाए | ||
− | रोज़ मरने से, | + | रोज़ मरने से,और जीने से |
रोज़ आँखें तरेर लेता है | रोज़ आँखें तरेर लेता है |
23:00, 27 अप्रैल 2009 का अवतरण
हमको देखो ज़रा क़रीने से
हम नज़र आएँगे नगीने से
तुम मिलो तो निजात मिल जाए
रोज़ मरने से,और जीने से
रोज़ आँखें तरेर लेता है
एक तूफ़ाँ मेरे सफ़ीने से
मेहनतों का सिला मिलेगा तुम्हें
प्यार हो जाएगा पसीने से
कोहरे का गुमान टूट गया
धूप आने लगी है ज़ीने से
अब तो आँसू भी ख़त्म हो आए
कैसे निकलेगी आग सीने से
दिल के ज़ख़्मों को क्या कहें "गुलशन"
नाग लिपटे हुए हैं सीने से