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"हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं / जिगर मुरादाबादी" के अवतरणों में अंतर

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हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं  
 
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हमसे ज़मानाख़ुद है ज़माने से हम नहीं  
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हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं  
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बेफ़ायदा अलम नहीं, बेकार ग़म नहीं  
 
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तौफ़ीक़ देख़ुदा तो ये ने'अमत भी कम नहीं  
 
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मेरी ज़ुबाँ पे शिकवा-ए-अह्ल-ए-सितम नहीं  
 
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मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं  
 
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं  
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या रब! हुजूम-ए-दर्द को दे और वुस'अतें  
 
या रब! हुजूम-ए-दर्द को दे और वुस'अतें  
 
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं  
 
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं  
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ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयख़ाने में मगर  
 
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयख़ाने में मगर  
 
क्या कम ये है कि शिकवा-ए-दैर-ओ-हरम नहीं  
 
क्या कम ये है कि शिकवा-ए-दैर-ओ-हरम नहीं  
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शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन  
 
शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन  
 
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं  
 
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं  
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मर्ग-ए-ज़िगर पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़  
 
मर्ग-ए-ज़िगर पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़  
 
इक सानिहा सही मगर इतनी अहम नहीं
 
इक सानिहा सही मगर इतनी अहम नहीं
 
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18:20, 2 मई 2009 का अवतरण

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं

बेफ़ायदा अलम नहीं, बेकार ग़म नहीं
तौफ़ीक़ देख़ुदा तो ये ने'अमत भी कम नहीं

मेरी ज़ुबाँ पे शिकवा-ए-अह्ल-ए-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं

या रब! हुजूम-ए-दर्द को दे और वुस'अतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं

ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयख़ाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवा-ए-दैर-ओ-हरम नहीं

शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं

मर्ग-ए-ज़िगर पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानिहा सही मगर इतनी अहम नहीं