"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" | + | |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"}} |
− | | | + | {{KKPageNavigation |
+ | |पीछे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 7 | ||
+ | |आगे=रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 2 | ||
+ | |सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर" | ||
}} | }} | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर, | शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर, | ||
पंक्ति 56: | पंक्ति 54: | ||
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली। | लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली। | ||
− | |||
− | |||
− |
21:34, 5 मई 2009 का अवतरण
शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।
आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।
हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,
धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।
बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।
अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।