"रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5" के अवतरणों में अंतर
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21:44, 5 मई 2009 का अवतरण
भगवान सभा को छोड़ चले,
- करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
- आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर
रथ चला परस्पर बात चली,
- शम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,
- अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय समूह को मरना है
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
- विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,
- कुछ नहीं समझने वाला है
चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
- क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है,
- मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे?
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
- रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
- भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे
"चिंता है, मैं क्या और करूं?
- शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,
- हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
समराग्नि अभी तल सकती है
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
- तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,
- तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
"क्या अघटनीय घटना कराल?
- तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,
- कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने हो तत्पर
"माँ का सनेह पाया न कभी,
- सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,
- पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को
"पर कौन दोष इसमें तेरा?
- अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,
- है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनाएंगे
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
- बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
- तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,
- धर्माचिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
- सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
- आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,
- असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी
"रण अनायास रुक जायेगा,
- कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,
- कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
- साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,
- बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
- क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा "बड़ी यह माया है,
- जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
- उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
- निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
"सेवती मास दस तक जिसको,
- पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
- अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
- इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
- जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी
"पत्थर समान उसका हिय था,
- सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
- मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया
"माँ का पय भी न पीया मैंने,
- उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
- सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
- राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
- कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था,
- अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
- माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी
"पा पाँच तनय फूली फूली,
- दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
- मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
- सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
- अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडोँ को गले लगाती है?
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,
- तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
- वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
- मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
- मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
- सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
- जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था
"उस समय सुअंक लगा कर के,
- अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
- ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
- सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,
- किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?
"अपना विकास अवरुद्ध देख,
- सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
- आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
- राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
- देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है
"राजा रंक से बना कर के,
- यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,
- सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
- जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
- यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
"सच है मेरी है आस उसे,
- मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
- ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया,
- सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
- घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
"कुन्ती का मैं भी एक तनय,
- जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
- मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
- अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
- अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा,
- सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
- मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
"जो आज आप कह रहे आर्य,
- कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
- हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,
- कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
- सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
- भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
- सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
"सिर पर कुलीनता का टीका,
- भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
- परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं