"कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाये है मुझ से / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
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इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझसे <br><br> | इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझसे <br><br> | ||
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सँभलने दे मुझे ऐ नाउमीदी, क्या क़यामत है <br> | सँभलने दे मुझे ऐ नाउमीदी, क्या क़यामत है <br> | ||
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तकल्लुफ़ बर तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन <br> | तकल्लुफ़ बर तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन <br> |
00:22, 21 मई 2009 का अवतरण
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझसे
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझसे
ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है
कि जितना खेंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझसे
वो बदख़ू और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझसे
उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवानी है
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझसे
सँभलने दे मुझे ऐ नाउमीदी, क्या क़यामत है
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझसे
तकल्लुफ़ बर तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझसे
हुए हैं पाँव ही पहले नवर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझसे
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र "ग़ालिब"
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझसे